मोह से मुक्ति और आत्म महिमा का बोध – स्वामी शरणानन्द जी महाराज

Last Updated on July 22, 2019 by admin

💫 मम का आकर्षण और वास्तविकता की खोज अहम् रुपी अणु में ही विद्यमान है । प्रतीति के आकर्षण का अन्त होते ही अहंता वास्तविकता की खोज होकर वास्तविकता से अभिन्न होती है । अर्थात् प्रतीति की कामना मिटकर सत् की जिज्ञासा में परिणत होती है ।

💫 सत् की जिज्ञासा स्वतः सत् से अभिन्न होती है । सत् की अभिन्नता सत् में प्रियता प्रदान करती है । इस दृष्टि से प्रतीति की ममता ही सत् की जिज्ञासा और सत् की जिज्ञासा ही सत् की अभिन्नता और सत् की अभिन्नता ही सत् की प्रियता में परिणत होती है ।

💫 प्रतीति की ममता उसी समय तक जीवित रहती है, जिस समय तक मानव प्रवृत्ति के परिणाम से प्रभावित नहीं होता । प्रवृत्ति का आरम्भ काल भले ही सुखद प्रतीत हो, किन्तु परिणाम में तो अभाव ही शेष रहता है, जो किसी को अभीष्ठ नहीं है ।

💫 समस्त प्रवृत्तियों का उद्गम अपने में देह-भाव स्वीकार करना है, जो अविवेक-सिद्ध है । प्राप्त विवेक का अनादर ही अविवेक है । इस दृष्टि से अपनी भूल ही एकमात्र प्रवृत्तियों का स्त्रोत है ।

💫 प्रवृत्तियों का परिणाम असह्य होने से अपने में स्वयं वास्तविकता की खोज जाग्रत होती है । इससे यह स्पष्ट विदित होता है कि वास्तविकता से भी ‘मैं’ की एकता है । प्रतीति से अहम् की भूल-जनित एकता है और वास्तविकता से वास्तविक एकता है ।

💫 जिससे वास्तविक एकता है, उसमें आत्मीयता स्वतः सिद्ध है और जिससे भूल-जनित एकता है, उसकी ममता का त्याग अनिवार्य है । ममता के त्याग से आत्मीयता में सजीवता आती है । ममता के रहते हुए आत्मीयता सजीव नहीं होती, जिसके बिना हुए प्रियता की अभिव्यक्ति नहीं होती ।

💫 ममता-जनित आसक्ति पराधीनता में आबद्ध करती है और आत्मीयता से उदित प्रियता पराधीनता की तो कौन कहे, स्वाधीनता में भी रमण नहीं करने देती, अपितु जो ‘है’ उसके लिये रसरुप सिद्ध होती है । यह आत्मीयता की महिमा है । परन्तु जब तक ममता-जनित आसक्ति का अत्यन्त अभाव नहीं हो जाता, तब तक आत्मीयता की महिमा का बोध नहीं होता । इस दृष्टि से अहम् में से ममता का मिटा देना अनिवार्य है ।

📔 *मैं की खोज*

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