कुक्कुर खाँसी के कारण ,लक्षण और इलाज | Kali Khansi ka Gharelu ilaj

Last Updated on July 17, 2019 by admin

कुक्कुर खाँसी क्या है ? : Whooping cough in hindi

कुक्कुर खाँसी जिसे काली खांसी या परटूसिस (Pertussis) भी कहतें है एक तीव्र संक्रामक रोग है, जो एक विशेष प्रकार का प्रावेशिक कास (खांसी) एवं ज्वर तथा सामान्य स्वरुप के जुकाम के लक्षणों के साथ ‘बी० परटूसिस के ड्रापलेट इन्फेक्शन के रुप में होता है। प्रारम्भ में तेज खांसी और कुत्ते के हुप-हुप करने जैसी आवाज, मंद ज्वर, खांसते-खांसते दम रुक जाने जैसी अवस्था, खांसते हुए वमन एवं मितली होना, बच्चों में नींद न आना, चेहरा तमतमाया हुआ, आंखें लाल, शरीर का प्रतिदिन दुर्बल होते जाना आदि लक्षणों से युक्त रोग ‘हूपिंग कफ कहलाता है।

यह रोग खांसी में ‘हूप’ का प्रारम्भ होने के एक सप्ताह पहले तथा दो सप्ताह पश्चात् तक अत्यन्त संक्रामक हो जाता है।
यह एक संक्रामक रोग होने के कारण इससे ग्रस्त बालक को अन्य बालकों के सम्पर्क में नहीं जाने देना चाहिए, नहीं तो इस बीमारी को फैलने का मौका मिल सकता है। साधारणत: यह रोग ७ वर्ष से कम की आयु के बच्चों को होता है, किन्तु कभी कभी इसका आक्रमण बड़ो को भी हो सकता है।

कुकुर कास-रूक्ष कास (वातज) के अन्तर्गत आती है, अतः इसमें वात की प्रधानता रहती है। चरक संहिता अध्याय १८ में वातिक कास की चिकित्सा का सूत्र निम्न प्रकार बतलाया है

रूक्षस्यानिलजंकास स्नैहरुपाचरेत् ।
सपिभिर्वस्तिभिः पेयायष श्रीररसादिभिः ।।
वातघ्नसिद्धैः स्नेहधैथुमलेंहैश्च युक्तिता ।
अभ्यङ्गै परिषेकैश्च स्निग्धैः स्वेदैश्च बुद्धियम् ।।

अर्थात् रूक्ष वातज कास में स्नेहों में उपचार करना चाहिए। रोगी को घृत सेवन करायें, बस्ति दें। पेया यूष, क्षीर, आहार रुप में दे सकते हैं। वातघ्न औषधियों से सिद्ध स्नेह, औषधि, धूम, लेह आदि तथा अभ्यंङ्ग, परिषेक, स्निग्ध स्वेदों का प्रयोग कराना चाहिए।

रोगी बालकों को छ: सप्ताह तक अन्य बालकों से अलग रखें तथा खुले हुए हवादार कमरे में रखने से लाभ होता है। कमरे में अधिक शीतलता या अधिक उष्णता नहीं होनी चाहिए। यदि इसके साथ ही ज्वर भी हो तो शय्या पर पूर्ण विश्राम कराना चाहिए। छाती को ढके रहना चाहिए।

कुक्कुर खाँसी (काली खांसी) होने के कारण :

यह ‘बेसिलस हीमोफिलस परटूसिस’ नामक बैक्टीरिया से होता है। यह एक निगेटिव एनोरोबिक बेसिलस है।

संक्रमण :

यह रोग खांसने तथा छींकने के समय बिन्दु के संक्रमण से फैलता है। इसके साथ-साथ श्लेष्मा-स्त्राव की स्थिति में अत्यन्त संक्रामक होता है।
उम्र- २ से ७ वर्ष की आयु में विशेष रुप से बच्चों को आक्रांत करता है। फिर भी इसके लिए उम्र का कोई बंधन नहीं है। यह रोग लड़कों की अपेक्षा लड़कियों में अधिक पाया जाता है। यह रोग शीत ऋतु एवं बसंत ऋतु में ज्यादा होता है तथा फैलता है। इसका उद्भव काल औसतन १० से १४ दिन का होता है।

कुक्कुर खाँसी (काली खांसी) के लक्षण :

यह जुकाम के समान अवस्था से शुरु होता है। इसके लक्षण ने जल कटार तथा कंजाक्टिवाइटिस के होते हैं। नाक से स्त्राव आता है, आंखें लाल हो जाती है, खांसी तथा बुखार आ जाता है। तापक्रम प्रायः बहुत हल्का होता है। रोगी को सूखी-खांसी आती है। यह दिन या रात में किसी भी समय उत्पन्न हो सकती है, किन्तु रात्रि के समय अधिक कष्ट पहुंचाती है। कभी-कभी बच्चे के वमन भी हो जाती है। इसके अतिरिक्त छींकना, अश्रुस्त्राव, प्रावेगिक श्वास कष्ट, शोथयुक्त आकृति, स्वरयंत्र शोथ, नासा से रक्त-स्त्राव की प्रवृत्ति आदि लक्षण भी देखे जाते हैं।

यह अवस्था प्रायः ७-१० दिनों तक रहती है। कभी-कभी स्वरयंत्र शोथ के कारण तापक्रम की वृद्धि हो जाती है। इसे ‘ज्वरयुक्त कासावस्था’ (Febrile catarrhal stage) कहते हैं। प्रसेक शांत होने के साथ-साथ ज्वर का उपशम हो जाता है और इस समय तक इस रोग का प्रमुख लक्षण एक विशेष प्रकार की ‘हुप’ की ध्वनि के साथ प्रावेगिक कास (Paroxysmal cough) की उत्पत्ति हो जाती है। यह व्याधि इस अवस्था में अधिक संक्रामक होती है।

इसके बाद प्रावेगिक कास की अवस्था प्रारम्भ होती है। इस अवस्था में रोगी बालक को दिन-रात में दो-चार बार या १०-१५ बार कास (खांसी) के वेग उठते हैं। रात को सोते समय टूकिया क्यूकस के अधिक जमा हो जाने से इस रोग का वेग पहले। रात को ही होता है।

अन्य लक्षण :

• कभी-कभी श्वासावरोध के कारण रोगी की मृत्यु हो जाती है।
• वेग के समय अत्यधिक कष्ट होने के कारण रोगी बालक भयग्रस्त हो जाता है।
और नये वेग का पूर्वाभास होते ही निकट के व्यक्ति या वस्तु का सहारा लेना चाहता है। अथवा अपने घुटनों पर हाथ रखकर झुक जाता है अथवा बिस्तर का तकिया या चारपाई को बल पूर्वक पकड़ लेता है।
• रोगी बालक में अवरोध युक्त कास, श्वास एवं आक्षेप का कष्ट अधिक होता है।
• आवेग के समय बार-बार वमन होने के कारण तथा आवेग के भय से भोजन न करने के कारण बालक दुर्बल एवं क्षीण हो जाता है।
• द्वितीयावस्था में यह. सभी लक्षण मिलते हैं, जो ४-६ सप्ताह तक बने रहते हैं। इसके पश्चात् (लगभग ४-५ सप्ताह के बाद) रोगी की स्थिति में सुधार होने लगता है। रोगी धीरे-धीरे सामान्य स्थिति में आने लगता है तथा भोजन आदि ग्रहण करने लगता है तथा भोजन आदि ग्रहण करने लगता है।
• रोग मुक्ति के पश्चात् रोगी को पूर्णरुपेण स्वस्थ होने में काफी समय लग जाता है।
• रोग के अधिक समय तक बने रहने से फुफ्फुसकोष्ठ विस्तृति तथा टी०बी० होने का भय बना रहता है।
• ‘हूप’ की अनुपस्थि में निदान कठिन हो जाता है। मृदु स्वरुप के रोग में ‘हूप’ का शब्द प्रायः अनुपस्थिति रहता है।
‘ब्रॉन्काइटिस’ आदि में भी खांसी उठती है और काली-खांसी जैसे अन्य लक्षण उपस्थित मिलते हैं, परंतु ‘हूप’ प्रारम्भ होने पर ही इस बात का निश्चित निदान हो पाता है कि बच्चे को काली खांसी है।

कुक्कुर खाँसी (काली खांसी) में मुख्य सावधानियां :

• रोगी को स्वच्छ एवं हवादार कमरे में रखें। यदि ज्वर न हो तो खुले स्थान में भी
परिचर्या हो सकती है।
• रोगी बालक का आहार मुलायम होना चाहिए। विटामिन ‘ए’ तथा ‘डी’ का अतिरिक्त प्रयोग द्वितीयक संक्रमण का प्रतिरोध करने में सहायक होते हैं।
• रोगी को सान्त्वना आदि देना औषधियों की अपेक्षा अधिक लाभप्रद रहता है।
• शीतल वायु इस रोग के उपद्रव एवं कष्ट बढ़ाने में सहायक होती है, अतः रोगी को हल्के गरम कपड़े पहनाकर शीत से बचाना चाहिए।
• छाती पर विक्स, अमृतांजन, घी-कपूर आदि की मालिश आवश्यक है, इससे कष्ट कम हो जाता है।
• टि० वेञ्जोइन की गर्म पानी की वाष्प सुंघानी चाहिए। इससे गले की खुश्की शांत होती है। गंभीर तथा ‘कॉम्लीकेटिड केसिस’ में रोगी को ‘इन्फेक्शियस डिजीज हॉस्पिटल में भर्ती करा देना आवश्यक हो जाता है।
• जब तक टेम्परेचन सवसाइड न हो जाए, रोगी बालक को शय्या पर आराम कराना चाहिए।
• श्वास संबंधी उपद्रवों में ऑक्सीजन की आवश्यकता पड़ सकती है। अत: बच्चे की स्थिति को मध्य नजर रखते हुए इसकी व्यवस्था रखनी चाहिए। कई बार श्वास घुटकर बच्चे की मृत्यु हो जाती है। अतः ज्यादा श्वास अवरुद्ध होने पर आक्सीजन लगा देना ही हितकर रहता है।
• दिन के समय-समय एक्सपेक्टोरेण्ट (कफ बाहर निकालने वाले) तथा रात्रि के
समय सडेटिब्स देना हितकर होता है।

कुक्कुर खाँसी (काली खांसी) की एलोपेथिक चिकित्सा :

• रोग के आरम्भ में ही ‘एण्टीबायोटिक औषधियों के प्रयोग से पर्याप्त लाभ मिलता है। किन्तु १०-१५ दिन बाद सेवन कराने से विशेष लाभ की आशा नहीं की जानी चाहिए।
• ‘एण्टीबायोटिक औषधियों के प्रयोग से उत्तरकालीन उपद्रवों का प्रतिबंध हो जाता है।
• व्याधि के जीर्ण हो जाने पर कफशामक औषधियों का सहायक औषधि के रुप में प्रयोग आवश्यक हो जाता है।

• ‘एण्टीबायोटिका’ औषधियों के साथ ‘कोर्टीकोस्टेराइड्स’ का प्रयोग करने से रोग में शीघ्र एवं स्थाई स्वरुप का लाभ होता है।
इस रोग की चिकित्सा निम्न प्रकार से करनी चाहिए –
• इरीथ्रोमाइसिन (Erythromycin) १०० मि०ग्राम की एक मात्रा दिन में ४ बार १० दिनों तक दें।
• साल्बूटामोल लिक्विड (Salbuta mol liquid) मात्रा १ मि०ग्राम दिन में तीन बार दें।

कुक्कुर खाँसी (काली खांसी) का आयुर्वेदिक घरेलू उपचार :

1- तालीसादि चूर्ण १/२ ग्राम, अर्क मूल की छाल ७५ मि०ग्राम, घृत तथा मधु मिलाकर प्रात:सायं सेवन कराने से लाभ होता है।

2- अडूसे के पत्तों के १२ ग्राम रस में ६ ग्राम शहद मिलाकर सुबह-शाम चटाने से प्रायः हर प्रकार की खांसी में लाभ होता है।

3-केले के पत्तों को सुखाकर (छाया में) मिट्टी के बर्तन में कंडों में जलाकर भस्म बनायें। १२५ मि०ग्राम की मात्रा शहद या मलाई में मिलाकर ३-४ बार चटायें।

4-मुलहठी घन सत्व का प्रयोग करें।

5- कासहारी पेय- हर प्रकार की खांसी को दूर करने वाली, एक अनुभूत प्रयोग है। श्वासहारी कैपसूल दें।

6-सितोपलादि चूर्ण, प्रवाल भस्म को मिलाकर शहद से चटायें।

7-कंटकारी घृत, अमृतप्राश लेह, श्लेष्मातंक अवलेह इनमें से किसी एक का प्रयोग कराना लाभप्रद रहता है।

8-कस्तूरी- ३५ मि०ग्राम मधु या दुग्ध के साथ देने से लाभ होता है।

9-बालरोगांतक रस की १ गोली सुबह शाम मधु से देने पर लाभ होता है।

10-छोटी कटेली का क्वाथ कर शहद मिलाकर पिलाने से तीव्र आवेग नष्ट होता है।

11- वासा के पीले ताजे पत्र साफ करके भभके के ऊपर तक भर लें। मंदाग्नि द्वारा वाष्प को परिस्त्रुत कर लें। फिर इस परिस्त्रुत अर्क के बराबर शुद्ध शहद मिलाकर रख लें। इसे ६ ग्राम बालक की आयु अनुसार प्रयोग में लायें।

12-शुण्ठी (सौंठ), मिरच, सैंधव, गुड़ प्रत्येक २५०-२५० मि०ग्राम, जल २५ ग्राम, लेकर अग्नि पर चढ़ावे, जब चतुर्थ अंश रह जाने पर मधु मिलाकर पिलायें।

13- अडूसा, द्राक्षा, हरड़, पीपल को समभाग लेकर चूर्ण बना लें। इसे मधु के साथ दें। काकड़ासिंगी, नागरमोथा, अतीस सभी को समान भाग लेकर कूटकपड़ छानकर चूर्ण बना लें। फिर २५०-२५० मि०ग्राम की मात्रा में मधु से चटायें। ऐसी मात्रा का प्रयोग दिन में तीन बार तक करें।

( और पढ़े –खांसी दूर करने के 191 सबसे असरकारक घरेलु देसी नुस्खे )

नोट :- ऊपर बताये गए उपाय और नुस्खे आपकी जानकारी के लिए है। कोई भी उपाय और दवा प्रयोग करने से पहले आयुर्वेदिक चिकित्सक की सलाह जरुर ले और उपचार का तरीका विस्तार में जाने।

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