हिमालय के अद्भुत सिद्ध योगियों से भेंट (मधुर प्रसंग)

Last Updated on July 28, 2019 by admin

साकेतवासी योगिराज स्वामी जी श्रीज्योति:प्रकाशाश्रम जी के जीवन की कुछ बातें :

एक बार पिलखुवा पधारने पर मुझे पूज्यपाद अनन्त श्रीस्वामी जी श्रीकपिलदेवाचार्य जी महाराज के दर्शन-सत्संग का परम सौभाग्य प्राप्त हुआ था। उनसे साकेतवा सी योगिराज सिद्ध संत श्रीस्वामीजी श्रीज्योति:प्रकाशाश्रमजी महाराज के द्वारा बतायी गयी हिमालय में सिद्ध महात्माओंके दर्शन-मिलन की चमत्कारपूर्ण बातें सुनने को मिलीं। उन्होंने बतलाया कि साकेतवासी योगिराज श्रीस्वामीजीने स्वर्गीय श्रोत्रिय पं० श्रीभगवानदत्तजी शास्त्री और धनौरा मण्डीके परम श्रद्धेय पं० श्रीदिवाकरजी शास्त्री आदि विद्वानों के सामने ये सब बातें बतलायी थीं। यह सुनकर मेरे मनमें पूरी बातें जाननेके लिये बड़ी उत्सुकता उत्पन्न हो गयी। पूज्य श्रीदिवाकर शास्त्रीजीसे मेरा पूर्व परिचय था और उनकी मुझपर सदा कृपादृष्टि रही है। मैंने उनसे पत्रव्यवहार किया। उन्होंने कृपापूर्वक श्रीस्वामीजी महाराजका संक्षिप्त जीवन परिचय, चित्र, पुस्तक तथा हिमालय में महात्माओं के मिलन सम्बन्धी विवरण लिख भेजा। इसके लिये मैं उनका अत्यधिक आभारी हूँ। पूज्य श्रीदिवाकरजी शास्त्री आदि विद्वानोंके द्वारा विदित किया हुआ साकेतवासी स्वामीजीका संक्षिप्त चरित और स्वामीजीके द्वारा सुनायी सत्य घटनाएँ उन्हींकी भाषामें ज्यों-की-त्यों इस प्रकार हैं-

परम पूज्यपाद प्रात:स्मरणीय योगिराज स्वामीजी श्रीज्योतिः प्रकाशाश्रम जी महाराज पंजाब के अमृतसर जिलेके एक बड़े रईस के सुपुत्र थे। माता के श्रीरामकथामृतने पुत्रकी हृदयभूमि को भक्तिभावनाओंके लिये उर्वरा बना दिया था। शैशवकालसे ही श्रीरामजी में आपका अटल अनुराग हो गया और आपका अधिक समय श्रीरामजी के पूजन, ध्यान और जप में ही व्यतीत होने लगा।

आपकी संत-महात्माओं में बड़ी श्रद्धा-भक्ति थी। धीरे-धीरे वैराग्यका अङ्कर हृदयमें उदित होकर बढ़ने लगा। आपका चित्त उत्तराखण्ड में जाकर भजन-ध्यान करने को लालायित हो उठा। परंतु माता के अनुरोध करनेपर आपको घरपर ही रुकना पड़ा। कालक्रम से कुछ समयके पश्चात् माता का भी स्वर्गवास हो गया। आपकी इच्छा भ्रमण के लिये उत्कट हो उठी और लगभग पंद्रह वर्षकी अवस्था में आप बड़ी सम्पत्ति और सुखको लात मारकर घरसे निकल पड़े और श्रीहरिद्वार-ऋषिकेश होते हुए श्रीबदरीनाथजी जा पहुँचे। श्रीभगवानदत्त श्रोत्रियजी महाराज स्वामीजी की पर्वतयात्रा का वर्णन करते हुए लिखते हैं स्वामीजी की पर्वतयात्रा बड़ी ही रोचक है और उन्होंने मुझे इस यात्राका वर्णन ऋषिकेश में लाला श्रीचरणदासजी की धर्मशालामें अपने श्रीमुख से सुनाया था। आपके श्रीमुखसे निकले हुए शब्द अब भी मुझे ज्यों-के-त्यों स्मृतिपटलपर अङ्कित-से दीखते हैं।
संक्षेपमें उन्हींके शब्दोंको आपके सामने रखता हूँ।

स्वामीजी महाराज कहने लगे ।मैं श्रीबदरीनारायणजी के दर्शन कर लौटकर मार्ग में पीपलचट्टीपर ठहरा। बड़े-बड़े महात्माओं के मुख से मैंने अनेक बार सुना था कि उत्तराखण्ड (हिमालय)-में बड़े-बड़े सिद्ध-महात्मा रहते हैं।
मेरी प्रबल इच्छा हुई कि मैं प्रथम किसी सिद्ध के दर्शन करूं और फिर भगवान् श्रीरामचन्द्रजी के दर्शनों के लिये लगकर भजन करूंगा।
मैं मार्ग छोड़कर पीपलचट्टी से पूर्व की ओर पहाड़ों पर चढ़ने लगा। बीस दिनतक तो कहीं-कहीं पहाड़ों पर पर्वतवासियों के ग्राम मिलते रहे। उससे आगे बढ़ने पर बस्ती नहीं थी। कहीं कभी हिंसक जीवों के चलने से बनी हुई पगडंडियाँ मिल जाती थीं। कहीं-कहीं केवल वृक्षों की जड़ और झाड़ियों को पकड़कर आगे बढ़ना पड़ता था। कोसों तक ऊँचे पर्वत मार्गमें पड़ते थे। उनकी ऊँचाई देखकर यह अनुमान होता था कि आगे इससे ऊँचा पर्वत न होगा। परंतु उसको लाँघनेके बाद सामने उससे भी अधिक ऊँचा पर्वत दीख पड़ता था। नीचे दृष्टि डालनेसे भूमिके दर्शन नहीं होते थे। केवल अन्धकार ही दीख पड़ता था।

मैं दिनभर चलता रहता था। रात कहीं ऊँची चट्टानपर बैठकर व्यतीत करता था। हिंस्र जीवोंसे बचने के लिये अग्नि जला लिया करता था। रात्रि में सिंह आदि के गर्जन सुन पड़ते थे, परंतु श्रीरामजी की कृपा से मुझे इससे भय नहीं लगता था।
विधिवश एक दिन मैं एक तंग पगडंडी से आगे बढ़ रहा था। एक ओर गगनस्पर्शी पर्वत था और दूसरी ओर पातालभेदी खड्डु था। सामने दृष्टि की तो एक बबर सिंह मन्थर गतिसे धीरे-धीरे मेरी ओर आता दिखायी दिया। बचकर निकल जानेका मार्ग नहीं था। पीछे लौटना व्यर्थ था; क्योंकि सामने सिंहने देख लिया था। पैरके तनिक-से विचलित होनेसे अतल खड्डुमें गिरकर मरना था। तब मैं सोचने लगा कि बस, हो चुके सिद्धोंके दर्शन और देख चुका मैं सिद्धाश्रम; यहाँतक ही देखना था, अब सिंह बिना खाये नहीं छोड़ेगा। अन्त समय आ गया। अच्छा ! प्रभुकी इच्छा ! अस्तु ‘अन्तिम मति सो गति’—यह विचारकर नेत्र बंदकर मैं हृदय में क्या देखता हूँ कि सामने धनुष-बाण लिये श्रीरामजी विराजमान हैं, सिरपर जटा है और मुख अति मनोहर है, पीत वसन है, गले में वनमाला है। सरकार के अलौकिक स्वरूपमें मन इतना लीन हुआ कि कुछ समयतक बाहरकी सुध-बुध न रही।

अचानक ध्यान टूटा। सिंह समीप आ रहा था। विचार हुआ—आने दो, सिंह के खानेसे कुछ क्षण में श्रीरामजी मिल जायँगे। न जाने कितने समयतक जीवनका भार ढोकर दु:ख उठाना पड़ता। फिर प्रभुके स्वरूपका ध्यान करने लगा, परंतु ध्यान न जमा, इसी बीच सिंहने सामने आकर भूमिपर पंजेसे थपकी दी और बु, बु, बु, बु शब्द किया। सिंहने इसी प्रकार तीन-चार बार किया, परंतु मैंने नेत्र नहीं खोले। मैंने सोचा कि यह अपने खाद्यको पाकर प्रसन्न हो रहा है। अब यह मुझे खाना प्रारम्भ करनेवाला है। ओह, जब सिंह शरीरको फाड़ेगा तो कुछ समयतक मुझे बड़ी पीड़ा होगी। मैं यह विचार ही रहा था कि पीठके पीछे धमाका हुआ। मैंने नेत्र खोलकर पीछे गर्दन मोड़कर देखा तो वह महाभयंकर विशालकाय सिंह मेरे ऊपरसे कूदकर जा रहा है। तब अपने प्रभु श्रीरामकी अपने ऊपर इस प्रत्यक्ष कृपाको देखकर मेरा हृदय गद्गद हो गया। हृदयसे बार-बार यह पद निकलने लगा । “जानकीनाथ सहाय करें तब कौन बिगार करै नर तेरो ”

कुछ समयके पश्चात् विचार हुआ कि ‘अच्छा होता कि सिंह मुझे अपना आहार बना लेता। सरकारके दर्शन होते और विषय-वियोग की ज्वाला शान्त हो जाती। किन्हीं पुण्योंसे यह मिलन-सुअवसर प्राप्त हुआ था, परंतु मेरे किसी प्रबल पापने आकर बीचमें विघ्न डाल दिया। सरकार ने मुझे अत्यन्त पतित जानकर ही अपने चरणों में नहीं बुलाया।’ इस विचारने मुझे विह्वल कर दिया। मैं फूट-फूटकर रोने लगा। मार्ग में चलते हुए तीन दिनतक मेरे नेत्रों से प्रेमाश्रु बहते रहे। आगे चलकर इसी प्रकार एक बड़े भालूसे मुठभेड़ हुई। उससे भी मेरी श्रीरामजीने रक्षा की।

इसी प्रकार उस निर्जन पहाड़ी वनमें चलते-चलते मुझे दो मास व्यतीत हो गये, परंतु किसी सिद्ध-महात्मा के दर्शन नहीं हुए। हृदयमें कुछ-कुछ निराशा-सी होने लगी। फिर भी मैं धैर्यसे आगे बढ़ता ही रहा। लगभग ढाई मासकी यात्राके उपरान्त मुझे पर्वतपर एक समतल भूमि मिली। मैं वहाँ कुछ दिनके लिये ठहर गया। मेरे पास एक बैसाखी थी जिससे मैं कंद खोदकर उदरपूर्ति कर लेता था। कंदोंकी पहचान महात्माओं के द्वारा मुझे पहले ही हो गयी थी। हिमाच्छादित (बर्फसे ढके) स्थानोंको छोड़कर ऐसे कंद प्रायः पहाड़ोंपर सभी जगह मिल जाते हैं। ये कई प्रकारके होते हैं और इनका स्वाद बड़ा मधुर होता है तथा पचनेमें ये बड़े हल्के होते हैं। अन्य प्रकारके वन्यफल भी ऋतुके अनुसार सर्वत्र मिल जाते हैं। वहाँ रात्रि में औषधियों से दीपक के समान प्रकाश निकलता था। लगभग चार गज के अन्तरसे यह प्रकाश दीखता था और पास जानेपर लुप्त हो जाता था। अतः उस औषधिकी पहचान न होती थी।

सिद्ध ब्रह्मचारीसे भेंट :

इस प्रकार उस प्रभुकी प्राकृतिक दिव्य महिमाका अनुभव करते हुए कुछ दिन और व्यतीत हुए। एक दिन एक बड़े ऊँचे कदके जटाधारी ब्रह्मचारी मेरे पास आये। उन्होंने मुझसे संस्कृतमें पूछा-‘कस्त्वम्, कुतश्च समायातः’ (तू कौन है और कहाँ से आया है?) संस्कृत का अधिक अभ्यास न होनेके कारण मैंने इसका उत्तर हिन्दी-भाषा में दिया। इस पर ब्रह्मचारीजी ने पूछा“तू यहाँ कैसे आया? यहाँ आना तो बड़ा कठिन है?’ मैंने कहा–’महाराज ! आना तो नि:संदेह कठिन था, परंतु श्रीरामजी की कृपा से चला आया हूँ। मैंने महात्माओं से सुना था कि हिमालयपर सिद्ध लोग रहते हैं। उन्हींके दर्शनों की उत्कट इच्छा मुझे यहाँतक ले आयी है।’

इसको सुनकर वे मुसकराये और बोले-‘भाई ! सिद्धजन तो ऋषिकेशसे लेकर पर्वतोंपर सर्वत्र रहते हैं, परंतु साधारण जनको दीखते नहीं। तुम्हीं बताओ, तुमने गायत्रीके कितने पुरश्चरण किये हैं? कौन-सा तप किया है? अथवा कौन-से अध्यात्मशास्त्रका मनन करके आत्मज्ञानी बने हो? जिससे तुम्हें सिद्ध-महात्माओं के दर्शन उपलब्ध हो सकें; जाओ, लौटकर अपने देश चले जाओ।’ ब्रह्मचारीजीके इन वचनोंको सुनकर मैंने कहा-‘महाराज ! क्षमा कीजिये, मैं अब लौट नहीं सकता। यहीं रहकर मैं श्रीराममन्त्रका जप करूँगा, जो प्रभुकी इच्छा होगी वही होगा।’ ।

एक मील की परिधिवाला अद्भुत वटवृक्ष :

मेरे इस आग्रहको देखकर ब्रह्मचारीजीने कहा कि ‘अच्छा, जैसी तुम्हारी इच्छा हो वैसा ही करो।’ इसके अनन्तर उन्होंने मुझे एक बूटी दिखलाकर कहा कि इसका एक तोला अर्क निकालकर पीनेसे सात दिनतक भूख नहीं लगती और बल भी क्षीण नहीं होता। तुम चाहो तो इसका सेवन कर सकते हो।’ फिर उन्होंने मुझे एक बड़के वृक्षके नीचे ले जाकर कहा कि‘यह स्थान भजन करनेके लिये बहुत उपयुक्त है, तुम यहीं रहो।’ इसके अनन्तर ब्रह्मचारीजी भी चले गये। | उस बड़को देखकर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। उसकी परिधि एक मीलसे कम न होगी। ऊँचाई भी असाधारण थी। वर्षा और धूप उसके सघन पत्तोंसे छनकर नहीं आ सकती थी। उसकी अधोभूमि शीतकालमें उष्ण और उष्णकालमें ठंडी रहती थी। पास ही निर्मल और मधुर जलका झरना बह रहा था। इधर-उधर गुफाएँ बनी थीं। इसके नीचे कहीं-कहीं धूनी भी लगी हुई दीखती थी, परंतु कोई महात्मा दृष्टिगोचर नहीं हुआ। देश में किसी-किसी महात्मा से इस वटवृक्षके सम्बन्धमें सुना करता था। आज उसे पाकर बड़ी प्रसन्नता हुई। मैं यहाँ रहकर । भजन करने लगा।

सौ वर्षसे समाधि लगाये योगीका दर्शन:

दस-ग्यारह महीने के पश्चात् वे ही जटाधारी ब्रह्मचारी एक दिन मेरे पास आये। कुछ समय विश्राम करनेके पश्चात् वे मुझे समझाने लगे कि देखो, अभी तुम्हारी अवस्था कम है। तुम देश में जाकर शास्त्र अध्ययन करो। शास्त्र के द्वारा हुआ वैराग्य दृढ़ होता है और वही ज्ञान दिव्य प्रभाववाला होता है, जो शास्त्रों के मनन करने से उपलब्ध होता है। अपरिपक्व वैराग्य और ज्ञान अस्थिर होते हैं। अध्यात्मशास्त्रों का अध्ययन करके फिर यहाँ आना।’ इसपर मैंने कहा-‘महाराज ! मैं तो यह प्रतिज्ञा करके आया हूँ कि बिना सिद्धों का दर्शन किये नहीं लौटूगा। फिर बताइये अपनी प्रतिज्ञाको तोड़कर कैसे चला जाऊँ?’ मेरे इस उत्तरको सुनकर ब्रह्मचारीजी कुछ क्षण विचारकर उठकर एक ओर चल दिये और मुझे अपने पीछे आने का संकेत किया। कुछ समय चलने के पश्चात् हम एक स्थानपर पहुँचे। वहाँ एक बड़ी शिलाके ऊपर एक योगी समाधि लगाये पद्मासन से बैठे थे। वे बैठे हुए भी मुझसे खड़े हुएके कदसे ऊँचे थे और उनकी जटाएँ पृथ्वीपर फैल रही थीं। भुकुटी के रोम दाढ़ी-जैसे लग रहे थे। बढ़े हुए नख सिंहके नखके समान मालूम होते थे। उनकी ओर संकेत करके ब्रह्मचारीजी ने कहा कि ये मेरे गुरु हैं। इनकी समाधि सौ वर्षसे लगी है, तबसे खुली नहीं। अब चलो सिद्धके दर्शन हो गये। तुम्हें उसी वटवृक्षके नीचे पहुँचा हूँ। तुम वहाँ स्वयं नहीं पहुँच सकते। तत्पश्चात् वे ब्रह्मचारी जी मुझे बड़के नीचे पहुँचाकर कहीं चले गये।

पाण्डवोंके समय का अद्भुत किला :

मैं उसी वृक्षके नीचे रहकर श्रीराम-मन्त्र का जप करने लगा। कुछ समय के बाद वे ब्रह्मचारीजी फिर एक दिन मेरे पास आये और कहने लगे-‘अब तुमने काफी जप करके अपने को पवित्र बना लिया है। चलो कुछ और दृश्य दिखाऊँ।’ मैं भी प्रसन्न होकर उनके साथ हो लिया। दिन के आठ बजे के लगभग हम दोनों एक गुफा के द्वारपर पहुँचे, जो एक बड़े भारी पत्थर से ढका हुआ था। ब्रह्मचारीजी ने उस पत्थर को सहज ही एक ओर हटा दिया। हम दोनों गुफा में प्रविष्ट हुए। फिर पत्थर द्वारपर लगा दिया गया। यह देखकर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ कि ब्रह्मचारीजीने अकेले ही सैकड़ों मनके पत्थर को कैसे हटा दिया? परंतु मैं यह सोचकर चुप रहा कि महात्माओं को टोकना नहीं चाहिये, कोई सिद्धि ही होगी। हम दोनों आगे बढ़े। वह गुफा या सुरंग संगमरमर की बनी हुई मालूम होती थी। स्पर्श करनेमें चिकनी थी। उसकी ऊँचाई और चौड़ाई काफी थी।
कहीं-कहीं रोशनदान भी खुले थे, जिनसे अंदर प्रकाश, वायु आती थी। आठ घंटे चलकर लगभग चार बजे हम दूसरे द्वारपर पहुँचे। वहाँ भी पहले-जैसा पत्थर लगा था। ब्रह्मचारीजीने उसे भी सहज ही खोला और बंद कर दिया।
सुरंग से निकलकर हम दोनों एक सुन्दर मैदान में आये। यहाँके दृश्य को देखकर मैं अवाक् रह गया। चारों ओर मीलों ऊँची पहाड़ोंकी प्राचीरवाला और कोसों लम्बा-चौड़ा एक विशाल किला है। दीवारों में गुफा के समान सुन्दर स्थान बने हैं। जिनमें बड़े-बड़े डील-डौल के महात्मा लोग समाधि लगाये बैठे हैं। चारों ओर फल और पुष्पोंसे लदी हुई लताएँ और वृक्ष सुशोभित हैं। कहीं-कहीं झरनों से मोतियों के समान स्वच्छ जल गिर रहा है। बहुत समयतक इन दृश्यों को देखकर मैंने ब्रह्मचारीजी से प्रश्न किया-
भगवन् ! यह कौन-सा स्थान है ?’ ब्रह्मचारीजीने उत्तर दिया कि यह अर्जुनका बनवाया हुआ किला है। व्यासजी के आज्ञानुसार अर्जुन यहीं तप करनेके लिये आये थे।

महाभारत के समय के सिद्धों का दर्शन :

फिर ब्रह्मचारीजी ने कहा-‘ये जो गुफाओं में महात्माओं को तुम देखते हो, ये महाभारत के समय के हैं। तबसे अबतक इनकी समाधि नहीं खुली।’ मैंने ब्रह्मचारीजी से उस सिद्धाश्रम में रहनेकी अनुमति माँगी। इसपर ब्रह्मचारीजीने कहा कि यह स्थान केवल सिद्धजनों के रहनेका है। यहाँ कलियुगका उत्पन्न हुआ मनुष्य नहीं रह सकता। यह स्थान मल-मूत्र त्यागने का नहीं है। यदि दिनमें यहाँ कोई साधारण जन हठात् रह भी जाय तो रात्रि में वह उठाकर उसी स्थानपर पहुँचा दिया जाता है जहाँ का वह होता है। इसलिये इस मिथ्या मनोरथको छोड़कर मेरे साथ चलो। वहीं वटके नीचे तुझे पहुँचा आऊँ’ ऐसे कहकर मुझे फिर उसी सुरंगमार्ग से निकालकर वे बड़ के नीचे पहुँचा गये। मैं पूर्ववत् वहीं श्रीराम-मन्त्रका जप करने लगा। इस प्रकार कुछ समय और व्यतीत हुआ।

अद्भुत दिव्य प्रकाशका दर्शन :

एक दिन रात्रि के समय बैठा हुआ मैं श्रीराम-मन्त्रका जप कर रहा था, मेरे नेत्र खुले थे। अचानक एक बड़ा दिव्य प्रकाश सामने आया। अनेक गैसों का प्रकाश उसकी तुलना नहीं कर सकता था। उस प्रकाश के मध्यमें आकृति भी अवश्य थी, परंतु प्रकाशकी चकाचौंध के कारण मेरी दृष्टिमें बँध न सकी। कुछ क्षणों के पश्चात् वह दिव्य प्रकाश अन्तर्धान हो गया। मैं बड़ा व्यग्र हुआ। बार-बार गद्गद कण्ठसे रामजी को पुकारकर कहने लगा–’सरकार ! इस प्रकार के दर्शनों से मेरे हृदयको शान्ति नहीं हुई। मैं इस प्रकार नहीं मानूंगा। यदि कृपाकर दर्शन देने हैं तो स्पष्टरूप में सम्मुख आइये। परंतु मेरा प्रारब्ध ऐसा कहाँ था ? फिर कभी वैसे प्रकाशके भी दर्शन न हुए। इसके पश्चात् एक दिन ब्रह्मचारीजी ने आकर मुझे आग्रह करके देश लौट आनेके लिये विवश किया। मुझे आना पड़ा, परंतु मेरा इधर मन नहीं लगता, कुछ समय अध्यात्मशास्त्रों का अध्ययन कर फिर वहीं चला जाऊँगा। यह कहकर उस समय आप चुप हो गये।

पूज्य श्रीरामसेवकजी (श्रीस्वामी ज्योति:प्रकाशाश्रमजी)-से इस सिद्धाश्रमके वर्णनको सुनकर मेरे हृदय में बड़ी शान्ति हुई। इसके पूर्व एक-दो महात्माओं के मुखसे मैंने रामसेवकजी के विषय में कुछ अद्भुत बातें सुनी थीं। उस दिन उनकी पर्वतयात्राका रोचक और पावन वर्णन सुनकर मैंने अपनेको धन्य समझा।
इसके बाद स्वर्गीय श्रोत्रिय श्रीभगवानदत्त शास्त्री लिखते हैं- रामसेवकजी का मेरा बहुत दिनों तक साथ रहा है। समय समय पर उनकी देशयात्राओं के विचित्र वर्णन भी उनसे सुनने का मुझे सौभाग्य प्राप्त हुआ है। वे मेरे स्थान बिजनौर में भगवान्भवन में भी बहुत समयतक रहे हैं। इसके पश्चात् जब मैं बिहारी संस्कृत विद्यालय चाँदपुर (बिजनौर)- में मुख्याध्यापक होकर रहने लगा था, तब वे चाँदपुरमें भी महीनोंतक मेरे स्थानपर रहे हैं। मैंने उनसे प्रार्थना की थी कि ‘स्वामीजी ! जब आप फिर सिद्धाश्रम जायँ तो किसी सिद्धयोगी से सूर्यादि दिव्य लोकों का यथावत् वर्णन ज्ञात करके मुझे सुनाने की अवश्य कृपा करना।’ इसके अनन्तर कुछ समय पश्चात् रामसेवकजी संन्यास लेकर नेपाल से वाराह क्षेत्र होते हुए उक्त सिद्धाश्रम को फिर दुबारा गये थे।

स्वामीजी की अवधूतावस्था :

पूज्य श्रोत्रिय पं० श्रीभगवानदत्त शास्त्रीजी महाराजने पूज्यपाद प्रात:स्मरणीय स्वामीजी श्रीज्योति:प्रकाशाश्रम जी महाराज के सम्बन्धकी अन्तिम अवधूतावस्था का वर्णन इस प्रकार किया है
बहुत दिनों तक पूज्यपाद स्वामीजी श्रीज्योति:प्रकाशाश्रम जी महाराजके दर्शन नहीं हुए और न यह पता लगा कि वे इस समय कहाँ हैं? मैं संवत् १९९० के फाल्गुनमासमें श्रीकाशीजी गया। जब स्वामीजी ब्रह्मचर्याश्रम में थे, तबसे ही बहुधा वे वहाँ चौसट्टी घाटपर ठहरा करते थे। अतः उनका पता जानने के लिये
मैं उस घाटपर गया। वहाँ स्वामी श्रीओंकाराश्रम जी रहते थे, जो स्वामीजी की पर्वतयात्रा से परिचित थे। मैंने उनसे स्वामीजी श्रीज्योति:प्रकाशाश्रम जी महाराज की स्थिति के सम्बन्धमें पूछा। इसके उत्तर में उन्होंने जो बताया वह ज्यों-का-त्यों इस प्रकार है-

स्वामी श्रीओंकाराश्रमजी महाराज कहने लगे कि लगभग दो-तीन वर्ष हुए, एक दिन इसी चौसट्टी घाटपर पैड़ियों पर मैंने एक कौपीनधारी महात्माको खड़े देखा। उनके सिरपर जटाएँ थीं। मैंने उन्हें पहिचाना, वे ज्योति:प्रकाशाश्रमजी महाराज ही थे। मैंने उनसे कहा- ‘चलिये ऊपर कुटी में विश्राम कीजिये।’ यह सुनकर उन्होंने मस्तक झुकाकर मुझे ‘नमो नारायण’ किया, परंतु बोले कुछ नहीं। पुनः उसी प्रकार आनन्द में मग्न हो गये। उनकी इस अवधूतावस्था को देखकर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई। उनसे कुछ खानेको कहा, परंतु वे कुछ न बोले। मैंने अपने शिष्यद्वारा दूध मँगवाकर उनके मुखसे लगवाया, वे केवल एक पूँट भरकर अस्सीघाट की ओर चले गये।

एक दिन वे फिर पैड़ियोंपर खड़े देखे गये। उनके सारे शरीरपर गारा लगा हुआ था। मैंने दो विद्यार्थियों के हाथों उन्हें मलकर स्नान करवाया। उन्हें शरीर की कुछ सुध न थी और हर समय ब्रह्मानन्द में अखण्ड समाधि-सी लगी दीखती थी। खाना-पीना आदि व्यवहार छूटा-सा प्रतीत होता था। उनसे विश्राम करने तथा भोजन करनेको कहा गया; परंतु उन्हें कुछ सुध न थी। बिना कुछ कहे-सुने वे एक ओरको चले गये। इसके पश्चात् उन्हें हमने फिर कभी नहीं देखा।

स्वामी श्रीओंकाराश्रम जी महाराज से पूज्य श्रीस्वामीजी के सम्बन्धमें यह अलौकिक समाचार सुनकर मैं पं० श्रीदिवाकरजी शास्त्री को लेकर चित्रकूट आदि स्थानों में गया; परंतु उनकी खोज न मिली। निराश मैं अपने घर बिजनौर लौट आया। स्वामीजी के जीवनकी घटनाएँ बड़ी अलौकिक और आनन्दप्रद हैं।

पूज्य स्वामीजी महाराज स्वयं भी बड़े योगी थे; परंतु समाधि लगाने के लिये उत्तराखण्ड ही उपयुक्त स्थान है इसलिये इधर वे कम समाधिस्थ होते थे। एक दिन वे मेरे स्थानपर ठहरे थे। मैं चाँदपुर गया था। मेरा भतीजा घरपर था। एक दिन रात्रिमें स्वामीजी समाधिस्थ हो गये। उनकी दशा देखकर वह तो भयभीत हो गया। तीन दिन और चार रात्रि बीतनेपर उन्होंने अपनी समाधि खोली थी। पूज्य स्वामीजी महाराज बड़े ही प्रसन्नचित्त, सत्यवादी और मितभाषी थे। उनके दर्शनमात्रसे हृदयमें शान्ति हो जाती थी।

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