बच्चों की आदर्श दिनचर्या के 25 अनमोल सूत्र | Bacchon Ki Adarsh Dincharya In Hindi

Last Updated on September 11, 2021 by admin

बच्चों ने आदर्श दिनचर्या और उसका महत्व :

1.स्वस्थ बालक, स्वभावतः सूर्योदय होने पर उठते और पक्षियों के समान सूर्यास्त होने पर सो जाते हैं, मानो वे प्रकृति के आदेश को मानकर रहना चाहते हैं; परंतु संरक्षक अपने अनुचित व्यवहार से उनके स्वभाव को विकृत कर देते हैं।

2. बालकों को सदा पूर्व की ओर सिर रखकर सुलाना चाहिये। इससे सूर्य को प्रथम किरण उनके मस्तिष्क में प्रवेश कर उनकी मेधा को बढ़ाती है।

3. बालकों को उठाने के समय उनके पास एक दो मिनट तक मधुर ध्वनि से ‘हरे राम हरे हरे’ किंवा अन्य इष्ट श्लोक का गायन करना उत्तम है। इससे उन में सदाचार को विकास होता है।

4. बालक को शौच, मुख मार्जन (और यदि सम्भव हो तो स्नान भी) कराकर प्रार्थना (यज्ञोपवीत होने पर) संध्या का नित्य अभ्यास कराना इष्ट है।

5. इसके उपरान्त बालक खेलें, पढ़ें या घर के कामों में भाग लें। बालकों में अनुकरण-बुद्धि विशेष जाग्रत् रहती है, अतएव उससे लाभ उठाकर संरक्षकजन बालकों को उचित और सुलभ गृह-धंधों में लगायें । सम्भव है आरम्भ में वे कुछ बिगाड़ करें तो भी उनकी भर्सना न करे। भत्र्सना से वे हताश होकर अकर्मण्य हो जाते हैं। ठीक तो यही है कि उनके बिगाड़े हुए काम को सुधारते हुए उनका अनुमोदन करे और उनमें काम करने का उत्साह बढ़ाये।

6. बालकों को सदैव प्रात:काल दिन में पूर्वाभिमुख और सायंकाल रात्रि में पश्चिमाभिमुख बिठलाकर भोजन करायें। ऐसा करनेसे सूर्य-प्रकाश का प्रत्यक्ष ओज उन्हें मिलता है। वे दीर्घायु होते हैं। भोजन के समय बालक पालथी मारकर बैठे, इससे आन्त्रभाग मुक्त होता और पाचन ठीक होता है। ( और पढ़े – बच्चे का मन पढ़ाई में न लगे तो करें यह उपाय )

7. बालक स्वभावतः शुद्ध सात्त्विक भोजन खाना चाहते हैं; किंतु संरक्षक (विशेषकर स्त्रियाँ) थोड़ा कष्ट बचाने को उन्हें अपने समान मिर्च-मसाले खाने में लगा देते हैं।

8. दाँत निकलने के समय बच्चों का स्वास्थ्य बहुत मन्द हो जाता है। उनकी आँखें बिगड़ जाती तथा अँतड़ियाँ कमजोर हो जाती हैं। उनको ज्वर आता और अधिक संख्या में दस्त होते हैं। ऐसी स्थिति में धैर्य रखकर बच्चों को शुद्ध मात दिल वस्तुएँ खिलायें, जिससे शरीर में बढ़ी हुई ऊष्मा का शमन हो। संरक्षकों के प्रमाद से इन दिनों अनेक बच्चे मर जाते या सदा के लिये रोगी हो जाते हैं। इसी तरह प्रायः सात वर्षकी आयुतक बच्चों को शीतला, चेचक, खसरा आदि ज्वरों के होने की सम्भावना रहती है। इस समय भी धैर्यसे काम करना चाहिये।

9. बच्चों की आवश्यकता को पूरा करना ठीक है, परंतु हठ-दुराग्रह की प्रवृत्ति रोकनी चाहिये।

10. बच्चों के कपड़े सदा स्वच्छ हों और उनके शरीर के मानसे सदा कुछ ढीले रहें। बहुत चुस्त या तंग कपड़ों से उनके रुधिर-सञ्चार में बाधा होती है।

11. माता-पिता या बड़े भाई-बहिन बच्चों को अपने साथ प्रतिदिन खुले मैदानों, बगीचों में ले जाकर टहलायें। प्रतिदिन कुछ समय निकालकर उनके खेल-कूद में भाग लें। ऐसा करने से वे दूषित संसर्ग से बचे रहते हैं।

12. ज्वर आदि व्याधि में बच्चों को ‘राम कवच’ या अन्य ‘इष्ट कवच’ का झाड़ा देना अमोघ उपाय है। ( और पढ़े – भोजन करने के शास्त्रीय नियम )

13. बालकों के मन में यह बात भरते रहना चाहिये कि ‘भूत पिसाच निकट नहिं आवै। महाबीर जब नाम सुनावै “अर्थात् महावीर (अपना शुद्ध आचरण) सब भूत-प्रेतोंको दूर भगा देता है; क्योंकि स्वयं महावीर (हनुमान्)-जीने अपने शुद्ध दृढ़ आचरण के बल से सब राक्षसों को पराजित कर दिया था। इसलिये बालक भी प्रतिदिन व्यायाम और संध्या कर अपना बल बढ़ायें और व्यसनोंसे दूर रहकर दृढ़ आचरण रखें-‘सत्यसंध दृढ़ब्रत रघुराई’ का अनुकरण करने का प्रयत्न करें।

14. बालक थोड़ा पढे और उसको अभ्यास में लाकर चरित्र सुन्दर बनाने का प्रयत्न करें। संरक्षक गण भी उनको उपदेशों के बदले क्रियात्मक उदाहरण द्वारा सिखाने का प्रयत्न करें।

15. बालकों में कौतूहल अधिक रहता है, अतएव – वे जानने के लिये प्रश्न किया करते हैं। जहाँ तक हो,उनका उचित समाधान कर देना चाहिये; इससे उनमें विचारशक्ति बढ़ती है। यदि प्रश्न का समाधान न हो सके तो मृदुता से उनको समझाकर धीरज देना चाहिये; परंतु उनके कौतूहल को निर्दयता से दबा देना अच्छा नहीं।

16. बालकों के चित्त पर से परीक्षा का बोझ हटा देना चाहिये। आजकल शिक्षा-विज्ञान में अधिकारि वर्ग ने बच्चों पर बहुत अधिक बोझ डाल रखा है। प्रत्येक कक्षा में आवश्यकता से अधिक पुस्तकों की नियुक्ति कर रखी है। पाठ्यक्रम की रचना करने वाले लोग पाठ्यक्रम बनाते समय बालक की उम्र का ध्यान न रखकर ऐसा पाठ्यक्रम बनाते हैं, मानो वे अपने लिये बना रहे हों। बालकों की आयु, बुद्धि और वित्तका बहुत कम ध्यान रखा जाता है। इससे बालकों में शारीरिक और नैतिक पतन बढ़ता जा रहा है।

17. सोते समय बालकों को पेशाब कराना चाहिये, अन्यथा वे बिछौने को बिगाड़ देते हैं। यदि उनके हाथ पैर भी धो दिये जायँ तो उनको ठीक नींद आती है।

18. बालकों को हर महीने में एक बार साधारण रेचक औषध (जैसे अदरक, तुलसी, नीबू) देने से उनकी अँतड़ियों में मल एकत्रित नहीं होता। उनका पाचन ठीक हो जाता और ज्वर आदि व्याधियाँ दूर रहती हैं।

19. प्रति रविवार बालकों को दूध, भात, रोटी, शक्कर अवश्य खिलायें। इससे उनमें सूर्य रश्मियों का प्रभाव ठीक पड़ने से स्वास्थ्य और मेधा की वृद्धि होती है।

20. बालकों को प्रति सप्ताह मंगलवार और शनिवार को विशेषकर शीत-ऋतु में तेल की मालिश कर के कुछ देर उन्हें प्रात:काल धूप में लिटा दें या बैठा दें। इससे उनमें अस्थिदौर्बल्य (Rickets) नहीं होता।

21. ईर्ष्यालु स्त्रियों के दृष्टि-दोष से सुरक्षित रखने के लिये बच्चोंके गलेमें राममन्त्र अथवा अन्य इष्ट मन्त्र का ताबीज बाँध दें। विशेष अवसरपर उनपर राई, नोन (नमक) निछावर कर अग्नि में डाल दें।

22. भोजन करने के पहले और पश्चात् दोनों बार बालकों को हाथ, पैर, मुँह, नाक, कपाल, सिरको धोकर गीला रखनेका अभ्यास करायें। इससे उनकी ज्ञानेन्द्रियाँ विशेषकर नेत्रज्योति दीर्घायु तक सुरक्षित रहती हैं। जब बालकों का श्वास दाहिने नथुने से चलता हो (सूर्यदेव चैतन्य हों), तब उन्हें खाने को देनेसे पाचन-क्रिया में विकार नहीं होता।

23. पढ़ने-लिखने में बायीं ओर से प्रकाश आने का प्रबन्ध रहे, अन्य ओर से आनेवाला प्रकाश बालकों की आँखों को हानि पहुँचाता है। बालक रीढ़ को सदा सीधी रखकर पढ़ें या लिखें। पुस्तक पर अधिक झुकने से फुफ्फुस खराब हो जाते हैं और कालान्तर में क्षय होने का डर रहता है।

24. बालकों को शिक्षा देने के लिये सदा सुगम, स्थूल वस्तुओं का उदाहरण लेकर कठिन, सूक्ष्म नियम की ओर ले जाना चाहिये। उनकी ज्ञानेन्द्रियों का अधिक-से-अधिक उपयोग करना चाहिये। उनके सामने ऐसी स्थूल वस्तु रखें, जिन्हें वे छुएँ, सँखें, बजायें, चखें, देखें। वे अपनी सर्वज्ञानेन्द्रियों का उपयोग कर वस्तुओं का ज्ञान प्राप्त करें। शिक्षाका उत्तम ढंग यही है।

25. बालकों के मननार्थ कुछ सुन्दर चौपाइयाँ दी जाती हैं। मानस तो अगाध मानस है और निर्मल जलसे (सुन्दर विचारोंसे) परिपूर्ण है; किंतु यात्री अपने प्रयोजनानुसार जल ग्रहण कर तृप्त हो जाते हैं।
बालक अपने स्वास्थ्य के लिये सदा इस श्लोक का मनन करते रहें। यहाँ केवल बाल-बुद्धिगम्य अर्थ लिखा जायगा

नीलाम्बुजश्यामलकोमलाङ्गं,
सीतासमारोपितवामभागम्।
पाणौ महासायकचारुचाएं,
नमामि रामं रघुवंशनाथम् ॥

‘मैं रघुवंश के नाथ श्रीराम को नमन करता हूँ, जिनका शरीर नीलकमल के समान श्याम और कोमल है, वाम भाग में सीता जी विराजमान हैं और हाथ में महान् बाण और सुन्दर धनुष हैं।

भावार्थ – राम जी अपने रघुवंश की रक्षा करते हैं, अपने ऐश्वर्य से सब जीवों (रघु=जीव; वंश=समुदाय) की रक्षा करते हैं। उनके पास सदा गृहस्थी की सुन्दरता रहती है और उनका शरीर भी सदा स्वस्थ रहता है तथा दुष्टों को दण्ड देने के लिये उनके हाथमें सदा धनुष-बाण रहते हैं। रामजी स्वस्थ, उत्तम गृहस्थ और नीतिज्ञ हैं; अतः मैं उनकी ओर झुकता हूँ, उनको स्वास्थ्य का उत्तम आदर्श मानकर उनका अनुचर (अनुयायी) होने का प्रयत्न करता हूँ।

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