अहिंसा की विजय (प्रेरक कहानी) | Prerak Hindi Kahani

Last Updated on July 22, 2019 by admin

बोध कथा : Hindi Motivational Storie

एक बार काशी नरेश नारायण सिंह ने अयोध्या के राजा चन्द्रसेनपर अकारण चढ़ाई कर दी। अपने राज्यका विस्तार करना ही कारण था। राजा चन्द्रसेन था अहिंसा का पुजारी। उसने सोचा कि युद्ध करने से हजारों आदमी मारे जायँगे। इसलिये वह राज्य तथा राजधा नी छोड़कर रात में चला गया। उसने संन्यासी का रूप बनाया और काशी जाकर वह एक कुम्हार के मन्दिर में रहने लगा। राजा के साथ उसकी एक रानी भी थी। रानी पतिव्रता थी। संकटके समय अपने पतिको अकेला छोड़ वह अपने मायके नहीं गयी। साध्वी वेश से राजा के ही साथ रहने लगी। रानी गर्भवती थी। नौ महीने बाद एक पुत्र पैदा हुआ। राजाने उसका नाम रखा–सूर्यसेन।

जब सूर्यसेन दस वर्षका हुआ तब उसे शिक्षा प्राप्त करनेके लिये हरिद्वारके गुरुकुलमें भेज दिया गया।
एक दिन काशी नरेश को पता लगा कि अयोध्या नरेश चन्द्रसेन अपनी रानीके साथ साधुवेशमें उसी की काशी में रहता है। राजा बहुत कुपित हुआ। उसने दोनों को गिरफ्तार करवा लिया और दोनोंको फाँसी की सजा दे दी। यह समाचार पाकर उसका पुत्र सूर्यसेन हरिद्वारसे आया और माता-पिताके अन्तिम दर्शन करने जेलखाने में गया।

पुत्रको प्यार करके पिताने उपदेश दिया ।
१-न अधिक देखना, न थोड़ा देखना।
२-हिंसा कभी प्रतिहिंसा के द्वारा पराजित नहीं होती।
३-लड़ाई को लड़ाई के द्वारा जीता नहीं जा सकता।
४-जवाबी शत्रुता से शत्रुता नहीं मिट सकती।
५ -हिंसा, लड़ाई और शत्रुताको प्रेम ही जीत सकता है।

जब अयोध्या नरेशको रानीके साथ फाँसी दे दी गयी तब राजकुमार सूर्यसेनने कुछ सोच-समझकर काशी नरेश के महावत के यहाँ नौकरी कर ली। काशी नरेशको मालूम न था कि अयोध्या नरेशका कोई पुत्र भी था।

सूर्यसेन को मुरली बजानेका शौक था। प्रातः चार बजे वह प्रतिदिन बड़े प्रेमसे मुरली बजाया करता था। एक दिन उसकी मुरलीकी मधुर ध्वनि काशी नरेशके कानों में भी जा पहुँची।
प्रातः राजाने महावतसे पूछा-‘तुम्हारे घरमें मुरली कौन बजाता है?’ महावतने कहा- ‘एक आवारा लड़के को मैंने नौकर रखा है। हाथियों को पानी पिला लाता है। वही मुरली बजाया करता है।’

काशी नरेशने सूर्यसेन को अपना ‘शरीररक्षक’ बना लिया। एक दिन काशी नरेश शिकार खेलने गया। घने जंगलमें वह अपने साथियों से छूट गया। एक घोड़ेपर राजा था, दूसरे पर था उसका शरीर रक्षक सूर्यसेन ! थककर दोनों एक घने वृक्षकी छायामें जा बैठे। राजाको कुछ आलस्य मालूम हुआ। गरमीके दिन थे ही। सूर्यसेनकी गोदको तकिया बनाकर राजा सो गया।
उसी समय सूर्यसेनको ध्यान आया कि यह वही काशीनरेश है। जिसने उसके माता-पिताको बिना अपराध फाँसी पर लटकाया था। आज मौका मिला है। क्यों न माता-पिताके खूनका बदला इससे चुका लँ। उसकी आँखों में खून उतर आया। प्रतिशोधकी ज्वाला छातीमें भभक उठी। उसने म्यानसे तलवार खींच ली!
उसी समय पिताका एक उपदेश उसके दिमागमें आ गया–हिंसा कभी प्रतिहिंसाके द्वारा पराजित नहीं होती।

सूर्यसेनने चुपके-से अपनी तलवार म्यानमें रख ली। पिता की वसीयत मेटने का हौसला न रहा।
उसी समय राजाकी आँखें खुल गयीं। बैठकर काशी नरेशने कहा-“बेटा ! बड़ा बुरा सपना देखा है मैंने। ऐसा मालूम हुआ कि तुम मेरा सिर काटने के लिये अपनी नंगी तलवार हाथमें लिये हो !
सूर्यसेनने फिर तलवार खींच ली, बोला-‘आपका सपना गलत नहीं है। मैं अयोध्या नरेशका राजकुमार हूँ। आपने बिना अपराध मेरे साधु-स्वरूप माता-पिताका वध कराया है, मैं आज उसका बदला लूँगा । जबतक आप अपनी तलवार म्यानसे निकालेंगे तबतक तो मैं आपका सिर धड़से जुदा कर दूंगा। आपके अत्याचारका बदला लेना ही चाहिये।’

दूसरा उपाय न देख राजाने हाथ जोड़े और कहा–’बेटा! मुझे क्षमा कर दो। मैं तुमसे अपने प्राणोंकी भिक्षा माँगता हूँ। मैं आज तुम्हारी शरण हूँ।
‘अगर मैं आपको छोड़ता हूँ तो आप मुझे मरवा डालेंगे।’
‘नहीं बेटा ! विश्वनाथ बाबाकी शपथ। मैं तुमको कोई भी सजा न दूंगा।’
इसके बाद दोनोंने हाथ में हाथ पकड़कर अपनी प्रतिज्ञा निभानेकी शपथ खायी।
तब सूर्यसेनने अपना सारा भेद खोल दिया। अन्तमें कहा–’मरते समय मेरे पिताने मुझे जो उपदेश दिया था, उसीके कारण आज आपकी जान बची है।’
‘वह क्या उपदेश है?-राजाने प्रश्न किया।

‘अधिक न देखना, न थोड़ा देखना। हिंसाको कभी प्रतिहिंसाके द्वारा पराजित नहीं किया जा सकता’–सूर्यसेनने कहा। इसका अर्थ क्या है?-राजाने पूछा।
सूर्यसेनने समझाया-‘अधिक न देखना’ का अर्थ यह है कि हिंसा को अधिक दिनों तक अपने मन में नहीं रखना चाहिये। ‘न थोड़ा देखना’ का मतलब यह है कि अपने बन्धु या मित्रका जरा भी दोष देखकर उससे सहज ही सम्बन्ध मत तोड़ना।
अब रहा– ‘हिंसाको प्रतिहिंसाके द्वारा पराजित नहीं किया जा सकता।’ इसका अर्थ प्रत्यक्ष है। यदि मैं आपको प्रतिहिंसा की भावना से मार डालता तो परिणाम यही होता न कि आपके पक्षवाले मुझे मार डालते। आज मेरे पिताके उपदेशने हम दोनोंके प्राण बचाये हैं।

‘जवाबी शत्रुता से शत्रुता नहीं मिट सकती है-यह सिद्धान्त कितना सच्चा है। आपने मेरे जीवन की रक्षा करके महत्त्वपूर्ण काम किया है। मैंने भी आपके जीवनकी रक्षा करके कम महत्त्वपूर्ण कार्य नहीं किया है।
‘बेटा ! तूने तो मेरा पाप नाश कर दिया है। पुण्यका सूर्य प्रकाशित हो उठा है।’
गद्गदकण्ठ होकर राजाने लड़केको छातीसे लगा लिया। राजधानी में लौटकर काशी नरेशने सूर्यसेनका राजपाट उसे लौटा दिया। अयोध्या नरेश काशी नरेशने सूर्यसेनको अपनी राजकुमारी व्याह दी।अहिंसाकी तलवार ने जो काम किया, वह हिंसाकी तलवार नहीं कर सकती थी। हिंसासे दोनों राजवंश डूब जाते।

किसीकी आत्माको किसी भी प्रकारसे दु:ख पहुँचाना ही हिंसा है।

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