प्राणायाम के प्रकार ,विधि और उनके लाभ | Types of Pranayama And its Benefits in Hindi

Last Updated on December 2, 2021 by admin

प्राणायाम के प्रकार और विधियां :

प्राणायाम के अनेक भेद योगाचार्यों और योग दर्शन कारों ने किये हैं। योग दर्शन में अपने एक सूत्र में महर्षि पतंजलि ने लिखा है

बाह्याभ्यन्तस्तम्भवृत्तिर्देशकाल संख्यामि परिदृष्टो दीर्घ सूक्ष्मः। – यो. द. 21 50

अर्थात बाह्य आभ्यन्तर और स्तम्भवृत्ति वाला प्राणायाम, देश, काल और संख्या से लम्चा व हलका होता है। इसमें पंतजलि ने तीन प्रकार के प्राणायाम बताये हैं। वे हैं – बाह्य, अभ्यन्तर, स्तम्भवृत्ति। चौथे प्राणायाम के विषय में वे लिखते हैं “बाह्याभ्यन्तर विषयाक्षेपी चतुर्थः”
अर्थात् श्वास को बाहर निकलने से, भीतर जाने से रोकने वाला ‘कुम्भक चौथा प्राणायाम है। इस प्रकार बाह्य, अभ्यन्तर, स्तम्भ वृत्ति और कुम्भक, ये चार भेद हुए। यह प्राणायाम महर्षि पतंजलि के योग दर्शन के अनुसार है। सांख्य दर्शन के मत पर आधारित इस योग दर्शन को ‘राजयोग विद्या’ कह सकते हैं। पतंजलि का योगदर्शन है ही राजयोग।
‘प्राणायाम’ जिस प्रकार राजयोग में आवश्यक है उसी प्रकार हठयोग में। अतः प्राणायाम के पहले पतंजलि योग सूत्रों के आधार पर लिखते हैं। ‘हठयोग’ में भी ये उपयोगी हैं। (और पढ़े – प्राणायाम क्या है ?)

1. वाह्य वृत्ति –

इसे ‘रेचक’ भी कहते हैं। श्वास को धीरे-धीरे बाहर निकालना। कई सांसों को मिलाकर एक करते हैं। जैसे एक मिनट में आप आठ बार सांस लेते हैं और इतनी ही बार छोड़ते हैं। इन्हें कम करते हुए एक में ले आना। अर्थात एक मिनट में एक बार सांस लेना और एक ही बार छोड़ना। बाह्य वृत्ति छोड़ने को ही कहते हैं। सांस को बाहर निकालना बाह्यवृत्ति (रेचक) है।
प्राणायाम में ‘रेचक’ अर्थ है श्वास छोड़ना। इसे संयमित करना।

2. आभ्यन्तर वृत्ति या पूरक –

बाहर से भीतर जाने वाले कई सांसों को प्रश्वास बनाकर नथुनों से धीरे-धीरे नियमित रूप से भीतर ले जाना जैसे बाह्य वृत्ति में बाहर निकाला था। ऐसे ही भीतर ले जाने को पूरक कहते हैं।

3. स्तम्भवृत्ति –

स्वाभाविक रूप से चलते सांस को जहां का तहां रोक देना स्तम्भवृत्ति कहलाता है। इसे कुम्भक भी कहते हैं।

4. बाह्याभ्यन्तराक्षेपी –

यह दो प्रकार से होता है। इसमें रेचक या पूरक प्राणायामों को कुम्भक में नियमित करते हैं। उन्हें देश, काल और संख्या के आधार पर नियमित करते हैं। बाह्याक्षेपी में मूलाधार से नाभि तक वायु को निकालकर बाह्य कुम्भक (स्तम्भ) द्वारा रोकें, घबराहट हो तो फिर नाभि से हृदय तक निकाल कर वहीं रोकें। जब घबराहट हो तो हृदय से कंठ तक की वायु को भी बाहर ही निकाल कर रोक देवें और यथाशक्ति रोके रखने से यह बाह्य कुम्भक हुआ। आभ्यन्तराक्षेपी तब होता है जब बाहर की वायु को विशेष गति से इस प्रकार भीतर खींचें कि मूलाधार से नाभि तक का स्थान भर जाये, यथा शक्ति रोकने के बाद नाभि से हृदय तक, फिर रोकने के बाद हृदय से आकंठ भर लें और यथा शक्ति रोके ।

देश का अर्थ है स्थान, जैसे मूलाधार से नाभि, नाभि से हृदय, हृदय से कंठ।काल का अर्थ है समय । जैसे दस सेकण्ड का रेचक, पांच सेकण्ड का कुम्भक या दस सेकण्ड का पूरक आदि। संख्या का अर्थ है छः मात्रा या गिनती तक पूरक, तीन मात्रा तक कुम्भक और छः मात्रा तक रेचक करना। यह संख्या परिदृष्टि होता है। दीर्घ-सूक्ष्म भी योगदर्शन में आया है। उसका अर्थ है-श्वास लम्बा और छोटा या गहरा और हलका।

यह इस प्रकार कि, बाहर को आप सांस छोड़ रहे हैं तो वह जितनी भी दूर तक प्रभावी है उतना दीर्घ है या सूक्ष्म है। आपके सामने एक फीट की दूरी तक की कोई कागज, बाल, रुई या दीपक की लौ रेचक से हिलती है आप उसे और दूर सरका देते हैं दो फीट तक प्रभावित फिर तीन तक। तो यह सूक्ष्म से दीर्घ हो गया। इसी प्रकार अन्दर की ओर सांस कंठ तक जाना, हृदय या मूलाधार तक जाना सूक्ष्म से दीर्घ होता है। जब आपके कम-से-कम दस बहार सांस मिलकर एक हों तब आपका दीर्घ सूक्ष्म सफल हो गया। ( और पढ़े –प्राणायाम के 15 आवश्यक नियम )

यह ‘राज योग’ में आये प्राणायाम ‘हठयोग’ में भी लाभकारी है। किन्तु हठयोग ग्रंथों में बहुत से नाम हैं। घेरण्ड संहिता में लिखा है – सहितः सूर्य भेदश्च उज्जायी शीतली तथा।। भस्त्रिका भ्रामरी मूच्र्छा, केवली चाष्ठ कुम्भकः ।

अर्थात-सहित, कुम्भक, सूर्य भेदी, उज्जायी, शीतली, भस्रिका, भ्रामरी,मूच्छ, केवली- ये आठ कुम्भक प्राणायाम हैं। विस्तार से इस प्रकार हैं –

1. सहित कुम्भक :

सहित कुम्भक दो प्रकार का होता है – सगर्भ और निगर्भ ।
सगर्भ वह है जो किसी मंत्रादि के साथ किया जाता है और निगर्भ वह जो बिना मंत्रों या गिनतियों के करते हैं। सहित कुम्भक को करने के भी भेद होते हैं। इन्हें भी योगी लोग तीन भागों में बांटते हैं, जैसे कनिष्ठ, मध्यम और उत्तम्।

  • कनिष्ठ – नियमानुसार सीधे बैठकर पहले दाएं हाथ के अंगूठे से नासिका के दाएं छिद्र को बंद करके ‘ओंकार’ का जप आठ बार अन्दर-ही-अन्दर करते हुए गिनती माला या अंगुलियों से कर सकते हैं। बायें नथुने से पूरक करते हैं। फिर बत्तीस बार ओंकार या ॐ का नाम जपने तक कुम्भक और फिर सोलह बार जपने तक, अनामिका अंगुली और मध्यमा अंगुली मिलाकर बायां नथुना बंद कर दाहिने से निकालें । इसी प्रकार दूसरे नासा छिद्र से कर सकते हैं। यह कनिष्ठ अभ्यास हुआ।
  • मध्यम – इसमें भी क्रिया उसी प्रकार है। अन्तर मंत्रों और संख्या के आधार पर समय का है। जैसे प्रथम सोलह बार में जपने के समय तक पूरक, चौंसठ तक कुम्भक और फिर बत्तीस जपों तक नियमानुसार वैसा ही रेचक ।
  • उत्तम – उत्तम ‘सहित कुम्भक’ वह है जब संख्या बत्तीस जपों के पूरक, 128 का कम्भक और 64 का रेचक हो जाता है। यह उत्तम प्राणायाम अभ्यास करते-करते सिद्ध हो जाता है।
  • प्राणायाम के लाभ – इस प्राणायाम से मन प्रफुल्लित, शरीर चुस्त और शक्तिशाली, चेहरा सुन्दर हो जाता है। इन्द्रियां और मन वश में आने लगती हैं द्वन्द्वों और भूख प्यास पर अधिकार होने लगता है।

2. सूर्य भेदी प्राणायाम :

अपने सिद्ध किये आसन में बैठकर नाक के दाहिने नथुने से जिसे सूर्यनाड़ी कहते हैं, धीरे-धीरे गहरी श्वास से पूरक करें। फिर यथाशक्ति कुम्भक करें। इसके बाद चन्द्रनाड़ी अर्थात बायें नथुने से श्वास को वेगपूर्वक बाहर निकालें अर्थात रेचक करें।
प्रथम दिन तीन बार इस प्राणायाम को शुरू करें और फिर सामर्थ्यानुसार बढ़ाते जायें।

प्राणायाम के लाभ-

सूर्यभेदी प्राणायाम से शरीर में गर्मी आती है। पित्त बढ़ता है। कफ और वात को नष्ट करता है। पाचन क्रिया को तेज करता है। मल शुद्धियां और नाड़ी शुद्धि करता है। शरीर को बल और तेज प्रदान करके बुढ़ापे और मृत्यु को शीघ्र नहीं आने देता।

3. उज्जायी प्राणायाम :

पहले बलपूर्वक पूर्ण रेचक करके श्वास को दोनों नासापुटों से अन्दर खींचें और बिना कुम्भक किये धीरे-धीरे बाहर निकाल दें। इसमें सांस पूर्णरूपेण पूरक की जाती है, छाती पूरी तरह फूल जाती है।

विधि यह है कि दोनों नासापुटों से कंठ से हृदय तक खूब हवा भर लें फिर छाती को पूरी फलाकर, हृदय से नीचे वायु न जाने देकर, धीरे-धीरे रेचन कर दें। कुछ योगाचार्य इसमें भी कुम्भक का उल्लेख करते हैं। उनके अनुसार कुम्भक करने के बाद ही धीरे-धीरे रेचक करते हैं।

प्राणायाम के लाभ-

उज्जायी से भी कई लाभ हैं। यह कंठ के बलगम, नाडियों का मल, वीर्य दोष, खांसी, वात रोग, तिल्ली के रोग दूर करता है।

4. भ्रामरी प्राणायाम :

वीरासन, पद्मासन या सिद्धासन में बैठकर अंगूठे से दायें नथुने को दबाकर बायें से पूरक करें। जब मूलाधार तक प्राणवायू भली प्रकार भर जाये तब कुछ देर कुम्भक करके कंठ से भौंरे जैसी गुंजार उत्पन्न करते हुए दाहिने नथुने से धीरे-धीरे रेचक करते रहें। रेचक को लम्बा करते हुए मन और बुद्धि को इस भ्रमर गुंजन में लगायें । यथा शक्ति रेचक को दीर्घ किया जाये और गुंजन में ऊं नाम में ध्यान भी किया जाये।

प्राणायाम के लाभ-

इस प्राणायाम से मन और वाणी में पवित्रता और तन्मयता आती है, समाधि लाभ हो सकता है।

5. मूर्च्छा प्राणायाम :

पद्मासन में बैठकर दायें हाथ के अंगूठे से दायें नथुने को दबाकर बायें नथुने से श्वास भरकर कम्भक कर लें। जालन्धर बन्ध लगाकर मानसिक सोचों का अभाव करके मूर्च्छित-सा होने का प्रयास करें। दृष्टि भवें के मध्य में रखें । जब कुम्भक न रखा जा सके तो दोनों नासापुटों से धीरे-धीरे प्राण का रेचन कर दें। कुम्भक के समय मन को विलीन-सा करने का प्रयत्न करते हैं। इससे मन शान्त होकर मूर्च्छित-सा हो जाये । इस प्रकार नथुने को बदल कर करें। अभ्यास को बढ़ाते जायें ।

प्राणायाम के लाभ-

इसके अभ्यास से मन शांत होकर मूर्च्छित-सा हो जाता है।

6. केवली प्राणायाम :

स्वास्तिक आसन में बैठकर रेचक-पूरक किये बिना ही प्राण को जहां का तहां सहसा रोकना, कैवली कुम्भक प्राणायाम है। हठयोग प्रदीपिका के अनुसार – ‘रेचकं पूरकं त्यक्त्वा सुख यद्वायु धारणम्।। प्राणायामोऽयमित्युक्तः स वै केवल कुम्भकः ।।

यह वास्तव में राजयोग का स्तम्भवृत्ति प्राणायाम ही है। इनमें कोई भेद नहीं लगता। इस प्राणायाम से द्वन्दों का नाश, आयु की वृद्धि, ध्यान में दृढ़ता और दिव्य दृष्टि की उपलब्धि होती है। “हठयोगी’ प्रदीपिका नामक हठयोग ग्रन्थ में ‘सहित कुम्भक’ के स्थान पर सीत्कारी’ और ‘केवली’ के स्थान पर ‘प्लवनी’ निर्देशित किया है। अतः इन दो प्राणायाम-सीत्कारी’ और ‘प्लवनी’ के विषय में भी लिखना आवश्यक है। ‘भस्त्रिका’ और शीतली से पूर्व यहां उन्हीं का उल्लेख करते हैं। हठयोग प्रदीपिका का ग्रन्थकार कहता है- सूर्य भेदनमुज्जायी सीत्कारी शीतली तथा। भस्त्रिका भ्रामरी मूच्र्छा प्लावनीत्यष्ट कुम्भकः ।।

इसमें भी आठ ही हैं। किन्तु इसमें सूर्य-भेद से पूर्व घेरण्ड संहिता की भांति ‘सहित कुम्भक नहीं है और केवली’ के स्थान पर ‘प्लावनी’ है। शेष सब वे ही हैं जो घेरण्ड संहिता’ में हैं।
इस प्रकार कुल मिलाकर ये दस हो जाते हैं।

7. सीत्कारी प्राणायाम :

सिद्धासन पर बैठकर शीतली के समान प्राणों को चोंच के समान बनी जीभ को मुख से बाहर निकालकर सीत्कार’ (सी-सी …ऽ ऽऽ) शब्द निकालते। हुए पूरक करके, बिना कुम्भक किये तत्काल दोनों नथुनों से तेजी से रेचक करें। इसी प्रकार बार-बार जीभ के द्वारा पूरक और नासिका द्वारा रेचक किया करें । हठयोग प्रदीपिका के अनुसार ‘सीत्कारं कुर्यात्तथा वक्त्रे प्राणेनैव विजृम्भिकाय। एवमभ्यासयोगेन कामदेवो द्वितीयकः ।।

अर्थात मुख के द्वारा जीभ से सीत्कार शब्द करते हुए पूरक तथा नासिका से रेचक करते रहने से सौंदर्य वृद्धि होती है। पित्त, प्रकृति वाले सदा कर सकते हैं। यह ग्रीष्म ऋतु में लाभकारी है।

8. प्लावनी प्राणायाम :

किसी स्थिर आसन में बैठकर दोनों नथुनों से पूरक करके इतना प्राण वायु भर लें कि आपका पेट बहुत फूल जाये। मानो पेट में ही सारे शरीर की हवा भर गई है। यथाशक्ति कुम्भक करके, पश्चात दोनों नासापुटों से धीरे-धीरे रेचक करें। इसी क्रम को इच्छानुसार दोहरायें। |

प्राणायाम के लाभ-

इससे पेट की अग्नि प्रदीप्त होकर पाचन क्रिया तेज होती है, कब्ज दूर होता है, आसन प्राण को शुद्ध करता है, अधिक अभ्यस्त होने पर व्यक्ति जल पर बिना हाथ-पांव हिलाए तैर सकता है।

9. भस्त्रिका प्राणायाम :

अभ्यस्त आसन में बैठकर हमें हाथ की मध्यमा और अनामिका अंगुलियों को जोड़कर सीधा रखें, शेष को मोड़ लें। इन अंगलियों से बायें नथुन को ‘बन्द कर लें और कोहनी को मरोड़ कर कंधे के समान ऊंचा उठा लें, बायें हाथ को दायें घुटने पर रख लें। अब बिना कुम्भक किये दायें नथुने से शब्द उत्पन्न करते हुए बलपूर्वक रेचक-पूरक को बिना रुके लम्बे-लम्बे श्वास-प्रश्वास द्वारा करें। श्वास-प्रश्वास की टक्कर अंगुलियों पर जोर से बलपूर्वक लगती रहे। कम-से-कम आठ दस बार पुक-रेचक करें। इसके बाद पूरक-रेचक अन्दर ही रोक लें ।

यथाशक्ति कुम्भक के बाद बायें नासापुट से रेचक करें । रेचक करते समय अंगूठे से दायें नथुने को दबा लें । इसी प्रकार फिर दायें नथुने को बन्द करके दूसरी ओर से करें।दोनों ओर से तीन-तीन प्राणायाम करके नित्यप्रति क्रमशः बढाते जायें । कमजोर को यह प्राणायाम अधिक वेग और शक्ति से नहीं करना चाहिए। कुछ योगी इसमें कुम्भक के समय जालंधर बन्ध भी लगाते हैं। इस प्राणायाम के अभ्यासी को घी-दूध का सेवन अवश्य करना चाहिए। बिना किसी योग्य शिक्षक या योगाचार्य के सिखाये, इसे न करें तो ही अच्छा हैं। योगाचार्य द्वारा भलीभांति सीखकर करने वाले साधक इससे लाभ उठा सकते हैं।

प्राणायाम के लाभ –

इससे कुण्डलिनी जागरण हो सकता है। यह कफ-मेद को सुखाता है। मोटी देह को पतली करता है।

10. शीतली प्राणायाम :

यह कुम्भक प्राणायाम सुखासन में बैठकर जीभ की आकृति को ‘काकी मुद्रा’ की भांति कौए की चोंच के समान बनाकर, जीभ के किनारों को मोड़कर गोल करने, पोली नलकी-सी बनाकर, धीरे-धीरे प्राण वायु को खींचकर पूरक करते हैं। उदर को पूर्णरूप से भरकर यथाशक्ति कुम्भक करते हैं। घबराहट होने पर दोनों नथुनों से रेचन करते हैं। बार-बार यही अभ्यास दोहराते हैं। यह प्राणायाम कफ प्रकृति वाले न करें। अन्य लोग भी गर्मी की ऋतु में करें।

प्राणायाम के लाभ-

इससे अजीर्ण, कफ-पित्त नाश, प्राण शान्त, प्यास शान्त, पित्त रोग दूर होते हैं। शरीर में शांति, सौंदर्य बढ़ता है। ब्लडप्रेशर’ उच्च हो तो कम करता है । ( और पढ़े –प्राणायाम की एक सरल प्रभावशाली विधि )

प्राणायाम के कुछ अन्य प्रकार :

कुछ प्राणायाम ऐसे भी हैं जो पुस्तकों में बहुत कम मिलते हैं किन्तु योगीजन उन्हें जानते हैं। ऐसे प्राणायाम उसी प्रकार चले जा रहे हैं जैसे वेद ज्ञान प्राचीनकाल में चलता था। मौखिक ज्ञान वेदों का ऋषि लोगों को होता था और वे अपने शिष्यों को कंठस्थ करा देते थे। ऐसे प्राणायाम भी कई हैं। ये प्राणायाम अत्यन्त सामर्थ्य प्रदाता हैं।इनमें कुछ इस प्रकार हैं –

(क) अग्नि प्रदीप्त प्राणायाम :

इसे करने के लिए पद्मासन में बैठते हैं। दायें नासिका छिद्र को बन्द करके बायें से धीरे-धीरे सांस को पूरक द्वारा मूलाधार तक इतना भर दें कि कण्ठ तक कहीं भी रिक्त स्थान न रहे। बलपूर्वक इतना कुम्भक करें कि छाती और मुंह लाल हो जाये । प्रथम बार में ही इतना अधिक न करें-धीरे-धीरे बढ़ा लें । जब घबराहट होने लगे तो दूसरे नथुने से धीरे-धीरे रेचक कर दें।

इस प्राणायाम के अभ्यास से अत्यन्त सर्दी में भी पसीना आता है। शीत दूर करने के लिए ही योगी लोग पर्वतों में इसका अभ्यास करते हैं। स्वामी दयानन्द तथा अन्य अनेक ऋषियों ने इसका अभ्यास किया था। इसे दोनों नथुनों से भी कर सकते हैं परन्तु इसमें नये साधकों को कठिनाई यह रहेगी कि दोनों से वायु शीघ्र आती जाती है। प्राणों पर संयम होने पर दोनों से किया। जा सकता है।

लाभ – इस प्राणायाम से पाचन अंग इतने शक्तिशाली हो जाते हैं कि अधिक भोजन को भी शीघ्र पचाते हैं। मल-मूत्र, कफ घटाते हैं, बल, तेज, उत्साह, सौंदर्य और स्वर की मधुरता बढ़ती है। रोग नहीं रहते।

(ख) दीर्घ श्वास-प्रश्वास :

किसी भी अभ्यस्त आसन में बैठकर दोनों हथेलियों को घुटनों पर रख लें, दोनों नथुनों से वेगपूर्वक लम्बा करके पूरक करें। फिर बिना कुम्भक इसी प्रकार जोर से, लम्चा रेचक करें। कई बार इसी प्रकार जोर-जोर से लम्बे-लम्बे पूरक-रेचक करें। संख्या पहले कम और फिर बढ़ाते जायें।

 लाभ – इससे फेफड़े स्वस्थ होते हैं, आमाशय आदि पाचक अंग स्वस्थ होते हैं। पाचन शक्ति और आयु में वृद्धि होती है तथा शक्ति और फुर्ती भी शरीर में आती है। इसे सब कर सकते हैं।

(ग) नाड़ी शुद्धि एवं अनुलोम विलोम प्राणायाम :

नाडियो और शिराओं की शुद्धि तथा देर में रक्त संचार को सुचारु एवं नियमित करने के लिए यह प्राणायाम अत्यन्त लाभप्रद है। पद्मासन में बैठकर दायें नथुने को अंगूठे से बन्द करके बायें से प्राण वायु को मूलाधार तक खूब भीतर भर लें और फिर बिना कुम्भक किये बायें को बन्दकर दाहिने से धीरे-धीरे रेचन करें। अब इसी दाहिने से वायु भरें और बायें से छोड़कर उसी से भरें। इसमें जिससे सांस छोड़ते हैं उसी नथुने से पूरक करते हैं। कुम्भक बिलकुल नहीं करते हैं। नाड़ी शुद्धि का दूसरा तरीका यह है कि सांस एक से लेते हैं दूसरे से छोड़ते हैं। फिर दूसरे से लेते हैं और पहले से छोड़ते हैं।

लाभ – इस प्राणायाम से रक्त, प्राणों और ज्ञान क्रियाएं उचित हो जाती हैं और ध्यान की स्थिरता तथा सूक्ष्मता और दीर्घता आती है। मन चाहे नथुने से योगी सांस ले सकता है। नस-नाड़ियां सब साफ-शुद्ध हो जाती हैं।

(घ) वक्षस्थल रेचक :

सुखासन में बैठकर दोनों नथुनों से अन्दर की समस्त वायु को धीरे-धीरे बाहर निकाल दें, बाह्य कुम्भक करें, दोनों हाथों की अंगुलियां दोनों कंधों पर टिकायें। कोहनियां ऊपर उठी रहें । छाती की नसों, मांसपेशियों और हड्डियों को शिथिल करके पिचका लें । कंधों को आगे की ओर उभारें । शरीर हड्डियों का ढांचा-सा लगे। फेफड़े सिकुड़ जायें । यथाशक्ति कुम्भक करके फिर सांस को छोड़ दें।

लाभ – इससे दिल की धडकनों पर नियंत्रण होता है। वे संयमित और सही हो जाती है। फेफड़े फुफ्फुस सही होते हैं। टी० बी० वालों का रोग घटता है। खून का दौरा भी ठीक होता है।

(ङ) मध्य रेचक :

अपने किसी भी आसन में सीधे बैठ जायें और उदर की सारी वायु को बाहर निकालकर, उड्डियान बन्ध इस प्रकार लगायें कि अंतड़ियां ऊपर को उठी-सी लगें । पेट के दोनों पाश्र्वो को दबाकर पेट के दोनों नलों (नौलि) को उठायें। जिस प्रकार नौलि क्रिया में उठाते हैं। यथाशक्ति कुम्भक करके प्राण को रेचक कर देते हैं। इस क्रिया को यथाशक्ति दोहरा सकते हैं। ‘ इस क्रिया को करने के लिए आगे को झुककर घुटने भी पकड़ सकते हैं, उत्कट आसन में भी कर सकते हैं। कुछ लोग खड़े होकर भी करते हैं। किन्तु श्रेष्ठ बैठकर ही किया हुआ माना गया है।

लाभ – इस प्राणायाम से आंतों के अनेक विकार दूर हो जाते हैं। मन वश में होता है। जिगर रोग में भी लाभ होता है।
इनके अतिरिक्त भी प्राण्याम के बहुत से भेद हैं। सभी को लिखना सम्भव भी नहीं है।

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