चमत्कारी औषधि कुचला के अनूठे फायदे | Kuchla Ke Fayde Aur Nuksan Hindi Mein

Last Updated on July 22, 2019 by admin

कुचला का सामान्य परिचय : Kuchla in Hindi

कुचले के वृक्ष की ऊचाई ४० फीट तक होती है । इसके पत्तों की गन्ध बहुत खराब होती है । इनको हाथ से मलने से पीले रंग का चिकना रस निकलता है । इसकी शालाएँ पतली होती हैं। मगर इतनी सख्त होती हैं। कि मुश्किल से टूटती हैं । इसके फल टीमरू की तरह होते हैं । ये पकने पर पीले रंग के हो जाते हैं। हर एक फल में चार २ पाँच २ बीज निकलते हैं जो गोल, चपटे व करीब एक इञ्च लंबे और पाव इंच चौडे. होते हैं । इन बीजों के दोनों तरफ कुछ रुआँ होता है । ये बीज ही कुचले के नाम से मशहूर हैं ।

अधुनिक चिकित्सा शास्त्र में इस औषधि ने बहुत महत्व प्राप्त किया है । ऐसा मालुम होता है कि इस औषधि का ज्ञान मुसलमानी हकीमों के द्वारा ही सब दूर फैला है। क्योंकि प्राचीन हिन्दू चिकित्सा अन्थों में इस औषधि का नाम कहीं नहीं मिलता है ।
शारंगधर संहिता में अवश्य वशमष्टि के नाम से एक औषधि का वर्णन पाया जाता है जिसे कुछ लोग कुचला समझते हैं। मगर भावप्रकाश ने वशमष्टि के जो लक्षण लिखे हैं उससे कुचले के लक्षणों में बहुत अन्तर है। प्राचीन यूरोपियन फरमाकोपिया में भी इस औषधि का नामोल्लेख नहीं था ।

फारसी की पुरानी किताबों से मालूम होता है कि ईशा की १६ वीं शताब्दी में इस दवा के गुण यूरोपके लोगों को, खास करके जर्मनी वालों को मालूम हुए और करीब सन् १५४० में डॉक्टर वेलरी ने इस औषधि का दवाओं की तरह वर्णन किया । सन् १६४० से इंगलैण्ड के दवा बेचने वालों की दुकानों पर यह दवा बिकने लगी मगर उस जमाने में इसका उपयोग केवल कुत्ते, बिल्ली, चूहे, स्यार और दूसरे जानवरों के मारने के लिये किया जाता था। दवा के बतौर इसका उपयोग नहीं होता था । इसके बाद धीरे २ अंग्रेजी डाक्टरों के द्वारा इस दवा के प्रयोग और रासायनिक विश्लेषण होने लगे और अज तो यह हालत है कि इस दवा से निकले हुए सत्व और जौहर देशी और विलायती चिकित्सा पद्धति के प्रधान अंग हो रहे हैं और करोड़ों रुपये की तादाद में इस औषधि की बिक्री होती है ।

विविध भाषाओं में नाम :

संस्कृत- काकपीलू, मटतिन्दुका, विषतिन्दू, विष द्रुम, रम्यफल, कालकूटक इत्यादि । हिंदी-कुचला, वैलवा, काजरा, निर्मल, कुलक। बंगाल-कुचला। गुजराती-कुचला, जहरी कोचला। मराठी-काजरा, कारस्कारुर, कुचला । अरबी-कातिलुल्कल्क, इजारगी, फलूजमा हो । उर्दू-अजार की, कुचला । तामील कंजरम । तेलगू– मुसिडी । लेटिन-Strychnos Nuxvomica ( स्ट्रिक्नॉस नक्सवोमि का )

कुचला के औषधीय गुण :

आयुर्वेदिक मत-

• आयुर्वेदिक मत से कुचला कड़वा, कसैला और तीखा होता है।
• यह गरम, सुधावर्धक, पौष्टिक, कामोद्दीपक, आँतों को सिकोड़ने वाला और पायाँयिक ज्वरों को नष्ट करने वाला होता है ।
• यह वात नाशक, कफनाशक तथा रक्तरोग, कुष्ट, खुजली, बवासीर, रक्ताल्पता, पीलीया और मूत्र विकारों को दूर करने वाला होता है ।
• कुचले की क्रिया शरीर की तमाम इन्द्रियों पर होती है पर इसकी विशेष क्रिया ज्ञान तन्तुओं के समूह पर होती है ।
• मेदे पर इसकी क्रिया उतनी प्रभावशाली नहीं होती, लेकिन मेदे के नीचे जो जीवनीय केन्द्र रहता है उस पर इसकी क्रिया होती है । अगर यह कहा जाय तो भी अतिशयोक्ति नहीं होगी कि मनुष्य की जीवनी शक्ति के केन्द्र स्थान पर इसकी प्रभावपूर्ण क्रिया होती है । जिसके परिणाम स्वरूप यह हृदय की रक्तवाहिनी नाड़ियों की उत्तेजना देता है, जिससे हृदय के संकोच और विकास की क्रिया ठीक होती है, रक्त वाहिनियों की स्थिति सुधारती है और रक्त का दबाव बढ़ता है, इसी के परिणाम स्वरूप स्वासोच्छ्वास के केन्द्र स्थान को भी उत्तेजना मिलती है और रोगी की श्वास लेने की शक्ति बढ़ती है ।
• जननेन्द्रिय के केन्द्र स्थान पर भी इसका उत्तेजनात्मक प्रभाव होता है और इससे यह पुरुषार्थ बढ़ाने वाली औषधियों में भी अग्रगण्य माना जाता है ।
• डाक्टर देसाई का कथन है कि कुचला अत्यन्त महत्व की उत्तम औषधि है । यह सब देशों की गवर्नमेट्स के द्वारा स्वीकृति कर ली गई है । स्नायु जाल समूह को इतनी प्रत्यक्ष उत्तेजना देने वाली दूसरी कोई औषधि इसके समान नहीं है इसका प्रभाव शरीर पर स्थाई रूप से पड़ता है ।
• यह एक भयंकर विष भी है, इसको अधिक मात्रा में लेने से यह बुरी तरह से मनुष्य के प्राण हरण कर लेता है । मगर कम मात्रा में यह अमृत तुल्य जीवन की रक्षा करता है ।
• पाचन नालिका पर कुचले का प्रभाव-
मनुष्य की पाचन नली पर कुचले की बहुत अच्छी क्रिया होती है । यह आमाशय की शक्ति को बढ़ाता है और पाचन क्रिया को सुधारता है ।
• कुचला सर्वोत्तम कटु पौष्टिक है । अबीर्य और अमाशय के प्राचीन रोगों पर इसका प्रयोग करने से अच्छा लाभ होता है, आमाशय की अपेक्षा भी पेट की अतों और नलों (बड़ी आँतों) पर इसकी क्रिया बहुत प्रभाव पूर्ण होती है ।
• यह अतड़ियों की शिथिलता को मिटाता है। छोटी मात्रा में यह कब्जियत को दूर करता है ।
• पित्त प्रकोप की वजह से होने वाले सिर दर्द में इसका असे देने से बड़ा लाभ होता है।
• पाचन नली के रोगों में इसके बीजों का चूर्ण ही दिया जाता है । अर्क देने से इतना लाभ नहीं होता ।
• आतों के ऊपर इसकी क्रिया मज्जा तन्तुओं के मारफत और स्वतन्त्र रूप से भी होती है। शाकाहारी लोगों के आमाशय के रोगों में और मांसाहारी लोगों के अतों के रोगों में कुचले का विशेष उपयोग होता है ।

मज्जा तन्तुओं पर कुचले का प्रभाव-

कुचले का प्रधान क्रिया स्थल मनुष्य के ज्ञान तन्तुओं का समूह है। कुचले को पेट में खाने से अथवा उसका इन्जेक्शन देने से उसका सीधा प्रभाव मज्जा तन्तुओं पर ही होता है । अतएव मज्जा तन्तु के रोग, जैसे लकवा, गठिया, मृगी, धनुर्वात, गतिभ्रंश ज्ञानभ्रंश इत्यादि रोगों पर कुचला अच्छा असर करता है ।
•जिन रोगों में स्वयं मज्जातन्तुओं का ही ह्रास हो जाता है उसमें यह औषधि अपना असर नहीं दिखला सकती मगर मज्जातन्तुओं पर आघात पहुँचने से शरीर में जो विकृतियाँ होती हैं उन्हें यह दूर करता है ।
•कम्प रोग और मज्जातन्तुओं की वेदना पर कुचला सखिया के साथ में दिया जाता है ।
•मज्जातन्तुओं की अशक्ति की वजह से होने वाले बहरेपन में भी कुचले से अच्छा लाभ होता है ।
•हस्त मैथुन की वजह से होने वाले वीर्य पतन और अति मैथुन की वजह से पैदा हुई नपुंसकता को दूर करने में कुचला अच्छा काम करता है।
• मनुष्य की अवस्था के उतार के समय कुचले को कालीमिरच के साथ देने से मनुष्य की काम शक्ति बहुत जागृत रहती है । कुचला एक अत्यन्त जोरदार और प्रत्यक्ष बाजीकरण (कामोद्दीपक) द्रव्य है । मूत्राशय की कमजोरी पर इसके सेवन से बड़ा लाभ होता है ।

रक्ताभिसरण क्रिया पर कुचले का प्रभाव-

किसी भी रोग में अगर हृदय की शिथिलता हो अथवा नाड़ी की शिथिलता होकर उसकी गति बढ़ जाय, उस स्थिति में कुचले को देने से बड़ा लाभ होता है । हृदय की शिथिलता होने से हृदय की धड़कन के ठोके स्पष्ट सुनाई नहीं पड़ते । नाड़ी गरम होकर बहुत शीघ्र अथवा टूटती हुई चलती है । हाथों की हथेलियां, पैरों की पगतलियाँ और कानों की पपड़ियाँ ठंडी हो जाती हैं, थोड़ासा श्रम करते ही पसीना छूटने लगता है और दम भरने लगता है। ऐसी स्थिति में कुचले का प्रयोग करने से मन्त्र शक्ति की तरह काम होता है । फेफड़े के रोगों में हृदय की शिथिलता होने पर भी ऐसे ही चिन्ह दिखलाई देते हैं । ऐसी स्थिति में रोगी की जीवन रक्षा के लिए कुचला समर्थ वस्तु है । हृदय पटल के जीर्ण रोगों में, जब पेट में जल जमा होकर जलोदर हो जाता है, यकृत बढ़ जाता है, पेशाब कम और लाल रंग का होने लगता है, दस्त साफ नहीं होता, पाचन क्रिया बिगड़ जाती है, पेट फूलता है, जी भीतर ही भीतर घबड़ाता है, संक्षिप्त में जिस स्थिति को आयुर्वेद में हृदयोदर कहा जाता है, उसमें कुचले का प्रयोग अवश्य करना चाहिये । हृदय के रोगों में अगर वे कफ के प्राधान्य से हों, तो उनमें कुचले को हींग, कपूर इत्यादि कफ नाशक द्रव्यों के साथ देना चाहिये । अगर उनमें जल शोध का प्राधान्य हो तो कुचले को मूत्रल, रेचक और पसीना लाने वाली औषधियों के साथ देना चाहिये । पाण्डु रोग में अथवा और किसी कारण से धमनियों की शिथिलता की वजह से अनिद्रा रोग पैदा हो जाये तो उसमें कुचले को लोह और प्रबल के साथ देना चाहिये ।

वासेन्द्रिय पर कुचले का पभाव-

फेफड़े के तीव्र रोगों में जब श्वास क्रिया अव्यवस्थित हो जाती है,रोगी का जी घबराता है, कफ पड़ने में कठिनता होती है तब इस औषधि का प्रयोग करना चाहिये । श्वास नली की सूजन, फेफड़े की सूजन, दमा इत्यादि रोगों में उतेजक कफनाशक औषधियों के साथ कु चले को देना चाहिये । राजयक्ष्मा के रात्रि स्वेद में भी कुचला लाभदायक है ।
फरमाकोपिया इन्डिया के मतानुसार कुचले के बीज उत्तेजक व स्नायु मन्डल को पुष्ट करने वाले होते हैं। अधिक मात्रा में यह एक प्रवल विष है । इसका उपयोग पक्षाघात और स्नायुशूल की पीड़ा में लाभजनक है । यह वस्तु अतिसार, पुरानी पेचिश और हमेशा रहने वाली कब्जियत के लिये भी उत्तम है । गुदा भ्रंश रोग पर भी यह लाभदायक है । इसका उपयोग पाययिक ज्वरों में, मधुमेह में, अपस्मार में और पाण्डुरोग में होता है । यह अनैच्छिक वीर्यस्राव में भी बहुत उपयोगी है । इसका कड़वा स्वाद और इसके विषेले गुण इस में रहने वाले स्टिकनिया और ब्रसाइन नामक तत्वों की वजह से हैं ।

आधुनिक उपचारों में कुचला अग्निमांद्य, कब्जियत और अंतड़ियों की क्रिया की शिथिलता में विशेष रूप से काम में लिया जाता है । इन बीमारियों में यह स्किट्र नाइन उपक्षार की वजह से विशेष लाभ जनक मालूम होता है ।

यूनानी मत –

•यूनानी मत से यह बहुत गरम और खुश्क है । यहाँ तक कि तीसरे दर्जे के आखिर तक गरम और खुश्क बतलाया जाता है । कम मात्रा में देने से यह सर्द मिजाज में जो खराबी पैदा हो जाती है उसको गरम मिजाज की तरफ बदल देता है और वदन को कुवत देता है ।
• लकवा, गठिया का दर्द, लंगड़ी का दर्द तथा स्नायु जाल से सम्बन्ध रखने वाली दूसरी बीमारियों में यह बहुत लाभदायक है।
•यह मासिक धर्म और पेशाब को साफ करता है और पथरी को तोड़ कर बहा देता है ।
•इस औषधि का सेवन इसकी दर्प नाशक औषधियों के साथ मिलाकर करने से किसी खतरे का डर नहीं रहता है ।
इसका लेप करने से चेहरे का कालापन, झांई, तर खुजली और दाद में लाभ होता है ।

रासायनिक विश्लेषण :

कुचले का रासायनिक विश्लेषण करने पर इसमें प्रधान रूप से दो तत्व पाये जाते हैं । पहला स्ट्रिकनाइन (Strychinine) और दूसरा ब्रूसिन (Brucine) । दोनों का ही स्वाद कड़वा रहता है । स्ट्रिकनिन एक प्रकार का रवेदार सत्व होता है । भारतीय कुचले के बीजों में १.२५ से लगाकर १.५ प्रतिशत तक स्ट्रिकनाइन रहता है । बूसिन की मात्रा इससे अधिक पाई जाती है । यह इसके पत्तों, छाल और लकड़ी में भी प्राप्त होता है ।

जौहर कुचला-( Strychnine ) यह कुचले में पाया जाने वाला सबसे प्रधान और प्रभावशाली तत्व है। कुचले के शरीर पर जितने प्रभावशाली असर होते हैं वे प्रायः इसी वजह से होते हैं । यह मेदे को ताकत देता है । खून के अक्सिजन की मिकदार को बढ़ाता है । रक्त वाहिनी नाड़ियों के समूह को गतिशील करके खून के दबाव को बढ़ाता है । श्वास की नलियों के केन्द्रों में विशेष गति विधि पैदा करता है जिससे सांस की क्रिया गहरी और तेज हो जाती है । डीजीटेलिस और कहवे के सत्व के साथ देने से यह हृदय रोग में लाभ पहुँचाता है ।

•बुढ़ापे की हालत में जब मूत्र पिंड की शक्ति कमजोर हो जाती है । पेशाब की हालत बार २ होती है और पेशाब बूद २ टपकता हो ऐसी हालत में कुचने का जौहर देने से बहुत लाभ होता है

कुचला का जहर और उसका प्रभाव :

✥हम ऊपर लिख आये हैं कि कुचला या कुचले क जौहर अधिक मात्रा में बहुत प्रबल बिष है । लगातार कई दिनों तक देने से लकवे के रोगी के शरीर में एक तरह की ऐंठन पैदा हो जाती है और चिटियां रेंगती हुई मालूम होती है । जब यह असर पैदा हो तो दो या तीन दिन तक दवा लेना बन्द कर देना चाहिये ।

✥इसको अधिक यात्रा में लेने से एक घंटे के बाद इसके उपद्रव शुरु हो जाते हैं । तबीयत बेचैन होने लगती है, पीठ, कन्धे और टाँगों में दर्द होने लगता है, गर्दन ऐंठने लगती है और सारे शरीर में इसका विषैला प्रभाव नजर आने लगता है, रोगी हाथ-पांव पीटने लगता है, उसके हाथों की मुठियाँ बन्द हो जाती हैं, सर पहिले आगे की तरफ और फिर पीछे की तरफ झुक जाता है और सारा शरीर बुरी तरह अकड़ जाता है, नाड़ी तेज चलती है, शरीर की हरारत बढ़ जाती है, बदन के जोड़ ढीले पड़ जाते हैं, सांस में रुकावट पैदा हो जाती है, आँखें बाहर को उभर आती हैं और अन्त में रोगी मौत का मेहमान हो जाता है । जौहर कुचला की कम से कम २ ग्रेन की मात्रा भी प्राणघातक होती देखी गयी है ।

✥ कुचले के विष की चिकित्सा में सबसे जरूरी बात यह होती है कि सबसे पहिले स्टमक ट्यूब के द्वारा अथवा वमन के द्वारा मेदे में से इसको निकाल देना चाहिये । उसके बाद २० से ४० ग्रेन की मात्रा में माजूफल का सत पानी में मिलाकर देना चाहिये । उसके बाद कोई वमन कारक दवा देकर माजूफल के सत को भी निकाल देना चाहिये ।

✥पोटेशियम ब्रोमाईड २ ड्राम और क्लोरो हायडाइड ३ ग्रेन को ४ औंस पानी में मिलाकर देना चाहिये ।

✥कुचले के विष को नष्ट करने के लिये तमाखू के सत के बराबर दूसरी वस्तु नहीं है। अगर तमाखू का संत मौजूद न हो तो अधिा औंस तमाखू को आधा औंस पानी में जोश देकर उसके चार हिस्से करके उसमें से १ हिस्सा रोगी को पिलायें । अगर जरूरत हो तो थोड़े समय के बाद दूसरी खुराक भी पिलायें ।

✥ कपूर का जौहर भी कुचले के विष को नष्ट करने में कामयाब होते देखा गया है ।

रोगों के उपचार में कुचला के फायदे :

1-वात व्याधियाँ और मन्दाग्नि–
खजाइनुल अदविया के लेखक लिखते हैं कि कुचले को भूनकर पीसलें । फिर १ कुचले का आठवाँ हिस्सा प्रतिदिन खाना शुरू करें, यह ४५ रोज तक खावें । उसके बाद १ कुचले का पाचवाँ हिस्सा प्रतिदिन के हिसाब से ४५ दिन तक खावें । उसके बाद चौथा हिस्सा ४५ दिन तक, फिर तीसरा हिस्सा ४५ दिन तक, फिर आधा हिस्सा ४५ दिन तक और फिर पूरा कुचला ४५ दिन तक खावें । इस प्रकार इसका सेवन करने से सब तरह की बात व्याधियाँ और मन्दाग्नि मिटती है ।

2-संग्रहणी-
कुचले को तीन दिन तक पानी में तर रखकर, छीलकर, उसका चोया खींचकर १ रत्ती की मात्रा में पान के साथ खिलाने से दस्त और संग्रहणी मिटती है ।

3-अतिसार (दस्त )-
मुरब्बे पर कुचले के अर्क की बूंदे डालकर खाने से बहुत सख्त दस्त बन्द होते हैं ।

4-सर्प विष-
कुचले की जड़ को खिलाने से सर्प विष में लाभ होता है । कुचले को काली मिरच के साथ पीस कर खिलाने से भी सौंप का जहर उतरता है ।

5-हैजा-
कुचले के दरख्त की १ गोली और सीधी लकड़ी लेकर उसके दोनों किनारों पर बरतन बाँधकर उसके बीच में आँच देना चाहिये । इस आँच के देने से उन दोनों किनारों से बरतनों में एक प्रकार का रस टपकेगा, उस रस की कुछ बूंद खाने से हैजा मिटता है ।

6-गठिया-
पुरानी गठिया को मिटाने के लिये कुचले को उसके अर्क के साथ देना चाहिये और कुचला, सोंठ और साम्हर सींग को मिला कर उसका लेप करना चाहिये ।

7-जखम के कीड़े-
जिन जख्मों में कीड़े पड़ गये हों उनपर इसके पत्तों का लेप करने से सब कीड़े मर जाते हैं ।

8-लकवा-
१५ कुचलों को १५ औंस पानी में भिगोकर हर तीसरे दिन पानी बदल दें । ऐसे १५ दिन तक पानी में भिगोकर उन का छिलका दूर करके सुखा लें और उनको जला डाले । उनकी जितनी राख हो उतने ही वजन की काली मिरच उस राख में मिलाकर काली मिरच के बराबर गोलियाँ बनालें । इन गोलियों को उचित मात्रा में खिलाने से लकवा, फालिज, गठिया इत्यादि रोग दूर होते हैं ।

9-खनी बवासीर-
कुचले की धूनी देने से खूनी बवासीर का खून और दर्द बन्द हो जाता है ।

10-पागल कुत्ते का जहर-
कुचले को आदमी के पेशाब में औटाकर काटने की जगह पर लेप करने से और कुचले को शराब में औटाकर छानकर, २ रत्ती की मात्रा में रोज खाने से कुत्ते का जहर उतर जाता है ।

11-बगठि-
कुचले को काली मिरच के साथ घिसकर लेप करने से बद गाँठ बैठ जाती है ।

12-नारू-
कुचले को पानी में गाढ़ा २ घिसकर उसको एक बताशे के बराबर बड़ी बूंद नारू के मुह पर डालें। उसके ऊपर २ चुटकी सुहागा और २ चुटकी सिंदूर डालकर अरंडी का पत्ता रखकर पट्टा चढ़ा दें । ऐसी एक या दो पट्टी से नारू साफ हो जाता है ।

13-नपुंसकता-
कुचले का सत ( नक्स व्होमिका ) डेमियाना ( एक अंग्रेजी दवा ) और फसफोरस इन तीनों का मिश्रण देने से भयंकर नपुंसकता भी दूर होती है । आजकल इस मिश्रण का प्रचार बहुत हो गया है और अंग्रेजी दवा बेचने वाले के यहाँ यह तैयार मिलता है ।

आयुर्वेद दवा :

माजून कुचला-

( १ ) कुचले को गाय के ताजा दूध में एक रात दिन भिगो दें और दूसरे दिन पहला दूध फेंककर फिर ताजा दूध डाल दें । इसी तरह सात दिन में ७ बार दूध तबदील करते रहें। फिर ताजा दूध डेकची में भरकर कुचले को एक पोटली में बाँधकर उसमें एक लकड़ी के सहारे ( दोलायंत्र ) लटका दें, ताकि वह डेकची के पेंदे में न लग जाय । फिर यहाँ तक जोश देते रहें कि दूध जल जाये । फिर पोटली को निकाल कर कुचलों को पानी में धोकर छिलके चाकू से छील दें । बाद में इसका रेती से बुरादा करके इसमें से ५ तोले लें । फिर सफेद और काली मिरच, दालचीनी, जायफल, जावित्री, मस्तंगी, अयबिलसान, सोंठ, अगर, लौंग, सैदकूफी ( नागर मोथा ), आँवला, वालछड़, दाना इलायची सफेद, कलौंजी, सन्दल सफेद, केशर, पीपर, सौंफ हर एक ३ माशे की मिकदार में लेकर बारीक पीसकर कुल वजन की तिगुनी शहद मिलाकर माजून बनाते हैं ।

खुराक की मात्रा-१ माशे से २ माशे तक लेना चाहिये ।

( २ ) दूसरा तरीका माजून का यह है कि कुचले को इसी तरह साफ करके २ तोले और बारीक पीस डालें । गावजुवान के फूल १ 1/2 तोले, दाना इलायची सफेद, नर कचूर, शिकाकु ल, सन्दल सफेद, विला, हलीता स्याह हर एक ६ मा शे, अगर ४ 1/2 माशे, उस्तखस, कतीरा खोपरा, चिलगोजे की भीगी हरएक १ तोला १ 1/2 माशे लेकर सबको बारीक कर लें और फिर तिगुने शहद में माजून बना लें ।

खुराक की मात्रा- ३ माशे से ६ माशे तक ।

लाभ-
इस माजन के सेवन से लकवा, गठिया, सुन्नत, सन्धिवात आदि तमाम वात व्याधियाँ, अजीर्ण, मन्दाग्नि, बवासीर इत्यादि तमाम पेट की व्याधियाँ और नपुंसकता में बहुत लाभ होता है । यह माजून पाचक और कामोत्तेजक है।
अधिक मात्रा में अधिक दिनों तक इसको सेवन करने से आक्षेप इत्यादि उपद्र व पैदा हो जाते हैं । यह एक भयंकर विष है, इसलिए इसका उपयोग बहुत सावधानी से करना चाहिये ।

कुचला के नुकसान / सेवन मे सावधानियाँ :

१- कुचला को स्वय से लेना खतरनाक साबित हो सकता है।
२- कुचला को डॉक्टर की सलाह अनुसार ,सटीक खुराक के रूप में समय की सीमित अवधि के लिए लें।
३- कुचला लेने से पहले अपने चिकित्सक से परामर्श करें।

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